Book Title: Mulachar
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Anantkirti Digambar Jain Granthmala

Previous | Next

Page 418
________________ पर्याप्ति-अधिकार १२ । ३८१ वारुणिवर खीरवरो घतवर लवणो य होति पत्तेया। कालो पुक्खर उदधी सयंभुरमणो य उदयरसा१०८० वारुणिवरः क्षीरवरो घृतवरो लवणश्च भवंति प्रत्येकाः। कालः पुष्कर उदधिः स्वयंभूरमणश्च उदकरसाः ॥१०८०॥ अर्थ-वारुणीवर क्षीरवर घृतवर लवणसमुद्र-ये चार अपने नामके अनुसार भिन्न भिन्न खादवाले हैं और कालोदधि पुष्कर खयंभूरमण-ये तीन समुद्र जलके समान स्वादवाले हैं।॥ १०८० ॥ लवणे कालसमुद्दे सयंभुरमणे य होंति मच्छा दु। अवसेसेसु समुद्देसु णत्थि मच्छा य मयरा वा १०८१ लवणे कालसमुद्रे स्वयंभूरमणे च भवंति मत्स्यास्तु । अवशेषेषु समुद्रेषु न संति मत्स्याश्च मकरा वा ॥१०८१॥ अर्थ-लवणसमुद्र कालसमुद्र और खयंभूरमणसमुद्र-इन तीन समुद्रोंमें तो मच्छ आदि जलचर जीव रहते हैं और शेष समुद्रोंमें मच्छ मगर आदि कोई भी जलचर जीव नहीं रहता ॥१०८१ ॥ अट्ठारस जोयणिया लवणे णव जोयणा णदिमुहेसु । छत्तीसगा य कालोदहिम्मि अट्ठारस णदिमुहेसु१०८२ अष्टादश योजना लवणे नव योजना नदीमुखेषु । षत्रिंशत्काश्च कालोदधौ अष्टादश नदीमुखेषु ॥१०८२॥ अर्थ-लवण समुद्रमें अठारह योजन प्रमाण मत्स्य हैं गंगा आदिके प्रवेश होनेके स्थानमें नौ योजनके मत्स्य हैं । कालोदधि समुद्रमें छत्तीस योजन प्रमाणवाले मत्स्य रहते हैं और नदियोंके मुखोंमें अठारह योजन प्रमाण मत्स्य हैं ॥ १०८२ ॥ साहस्सिया दु मच्छा सयंभुरमणमि पंचसदिया दु ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470