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पर्याप्ति - अधिकार १२ ।
अर्थ - जीव क्रोधादिकषायरूप परिणत कायकी क्रियारूप योगसे कर्म होने योग्य करता है वह बंध है ऐसा जानना चाहिये ॥ १२२० ॥ पयडिडिदिअणुभागप्पदेसबंधो य चदुविहो होइ । दुविहो य पयडिबंधो मूलो तह उत्तरो चेव ॥ १२२१ प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधश्च चतुर्विधो भवति । द्विविधश्व प्रकृतिबंधो मूलस्तथा उत्तरचैव ।। १२२१ ॥ अर्थ — प्रकृतिबंध स्थितिबंध अनुभागबंध प्रदेशबंध - इसतरह चार प्रकारका बंध है उनमेंसे प्रकृतिबंध मूल और उत्तर ऐसे दोप्रकारका है ।। १२२१ ॥
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हुआ मनवचन पुद्गलद्रव्यको ग्रहण
णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेदणीय मोहणीयं । आउगणामा गोदं तहंतरायं च मूलाओ ॥। १२२२ ॥ ज्ञानस्य दर्शनस्य च आवरणं वेदनीयं मोहनीयं । आयुर्नाम गोत्रं तथांतरायच मूलाः ॥ १२२२ ॥
अर्थ - ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय मोहनीय आयु नाम गोत्र और अंतराय - ये कर्मों की मूलप्रकृतियां हैं ॥ १२२२ ॥ पंच णव दोणि अट्ठावीसं चदुरो तहेव बादालं । दोणिय पंचय भणिया पयडीओ उत्तरा चेव ॥ १२२३ पंच नव द्वे अष्टाविंशतिः चतस्रः तथैव द्वाचत्वारिंशत् । द्वे पंच भणिताः प्रकृतय उत्तराचैव ।। १२२३ ॥ अर्थ — ज्ञानावरणादिकी क्रमसे पांच नौ दो अट्ठाईस चार व्यालीस दो पांच उत्तर प्रकृतियां (भेद ) कहीं गयीं हैं ॥ १२२३ ॥ आभिणिबोधियसुदओहीमणपज्जय केवलाणं च ।