Book Title: Mulachar
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Anantkirti Digambar Jain Granthmala

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Page 454
________________ . ४१७, पर्याप्ति-अधिकार १२। पर्याप्ता अपर्याप्ता अपि भवंति विकलेंद्रियास्तु षड्भेदाः। पर्याप्ता अपर्याप्ताः संज्ञिनः असंज्ञिनः शेषास्तु ॥११९४॥ . अर्थ-विकलेंद्रिय तीनके पर्याप्त अपर्याप्तसे छह भेद होते हैं और शेष संज्ञी असंज्ञीके भी पर्याप्त अपर्याप्तके भेदसे चार भेद होते हैं । इस तरह ४+६+४=मिलकर १४ जीवसमास हैं ॥ ११९४ ॥ मिच्छादिट्ठी सासादणो य मिस्सो असंजदो चेव । देसविरदो पमत्तो अपमत्तो तह य णायव्वो ॥११९५ एतो अपुवकरणो अणियट्टी सुहमसंपराओ य। उवसंतखीणमोहो सजोगिकेवलिजिणो अजोगी य॥ मिथ्यादृष्टिः सासादनश्च मिश्रः असंयतश्चैव । देशविरतः प्रमत्तः अप्रमत्तः तथा च ज्ञातव्यः ॥११९५॥ इतः अपूर्वकरणः अनिवृत्तिः सूक्ष्मसांपरायश्च । उपशांतक्षीणमोहौ सयोगिकेवलिजिनः अयोगी च॥११९६ अर्थ-मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र असंयत देशविरत प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मकषाय उपशांतमोह क्षीणमोह संयोगिकेवलिजिन और चौदहवां अयोगिकेवलिजिन-इसतरह चौदह गुणस्थान हैं । गुण जो आत्माके परिणाम उनके स्थान अर्थात् दर्जे वे गुणस्थान हैं ॥११९५-९६॥ - आगे चौदह मार्गणास्थानोंको कहते हैंगइ इंदिये च काये जोगे वेदे कसाय णाणे य । संजम दंसण लेस्सा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे॥ २७ मूला०

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