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मूलाचार
जीवोंके उष्ण योनि है और शेष एकेंद्रियादिके तीनोंप्रकारकी योनि है ॥ ११०१ ॥ संखावत्तयजोणी कुम्मुण्णद वंसपत्तजोणी य । तत्थ य संखावत्ते णियमादु विवज्रए गम्भो॥११०२॥
शंखावर्तकयोनिः कूर्मोनतः वंशपत्रयोनिश्च । तत्र च शंखावर्ते नियमात् विपद्यते गर्भः ॥ ११०२ ॥
अर्थ-शंखावर्तयोनि कूर्मोन्नतयोनि वंशपत्रयोनि इसतरह तीन प्रकारकी आकार योनि होती हैं उनमेंसे शंखावर्तयोनिमें नियमसे गर्भ नष्ट होजाता है ॥ ११०२ ॥ कुम्मुण्णदजोणीए तित्थयरा दुविहचक्कवट्टीय । रामावि य जायंते सेसा सेसेसु जोणीसु॥११०३ ॥ कूर्मोनतयोनौ तीर्थकरा द्विविधचक्रवर्तिनः।
रामा अपि च जायंते शेषाः शेषासु योनिषु ॥ ११०३॥ __अर्थ-कूर्मोन्नतयोनिमें तीर्थकर चक्री अर्धचक्रीदोनों बलदेवये उत्पन्न होते हैं और बाकी दो योनियोंमें शेष मनुष्यादि पैदा होते हैं ॥ ११०३॥ णिचिदरधादु सत्तय तर दस विगलिंदियेसु छच्चेव । सुरणिरयतिरिय चउरो चोद्दस मणुएसु सदसहस्सा॥ नित्येतरधातुसप्तकं तरूणां दश विकलेंद्रियाणां षट् चैव । सुरनारकतिरवां चत्वारः चतुर्दश मनुजानां शतसहस्राणि११०४
अर्थ-नित्यनिगोद इतरनिगोद पृथिवीकायसे लेकर वायुकायतक-इनके सात सात लाख योनि हैं । प्रत्येक वनस्पतिके दश लाख योनि हैं दो इंद्रिय आदि चौइंद्रीतक सब छह लाख ही हैं,