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मूलाचारपांचप्रकारके विनय सहित प्रत्याख्यान वह विनयकर शुद्ध होता है ॥ ६४०॥ अणुभासदि गुरुवयणं अक्खरपदवंजणं कमविसुद्धं । घोसविसुद्धी सुद्धं एवं अणुभासणासुद्धं ॥ ६४१ ॥
अनुभाषते गुरुवचनं अक्षरपदव्यंजनं क्रमविशुद्धं । घोषविशुद्धया शुद्धमेतत् अनुभाषणाशुद्धं ॥ ६४१॥
अर्थ-गुरु जैसा कहे उसीतरह प्रत्याख्यानके अक्षर पद व्यंजनोंका उच्चारण करे वह अक्षरादि क्रमसे पढना, शुद्ध गुरु लघु आदि उच्चारण शुद्ध होना वह अनुभाषणाशुद्ध है ॥ ६४१॥ आदंके उवसग्गे समे य दुन्भिक्खवुत्ति कंतारे। जं पालिदं ण भग्गं एदं अणुपालणासुद्धं ॥ ६४२॥
आतंके उपसर्गे श्रमे च दुर्भिक्षवृत्तौ कांतारे । यत् पालितं न भनं एतत् अनुपालनाशुद्धं ॥ ६४२ ॥ . अर्थ-रोगमें, उपसर्गमें भिक्षाकी प्राप्तिके अभावमें वनमें जो प्रत्याख्यान पालन किया भग्न ( नाश ) न हो वह अनुपालना शुद्ध है ॥ ६४२॥ रागेण व दोसेण व मणपरिणामें ण दूसिदं जं तु । तं पुण पञ्चक्खाणं भावविसुद्धं तु णादव्वं ॥ ६४३॥ ...रागेण वा द्वेषेण वा मनःपरिणामेण न क्षितं यत्तु ।
तत् पुनः प्रत्याख्यानं भावविशुद्धं तु ज्ञातव्यम् ॥ ६४३ ॥
अर्थ-राग परिणामसे अथवा द्वेष परिणामसे मनके विकारकर जो प्रत्याख्यान दूषित न हो वह प्रत्याख्यान भावविशुद्ध जानना ॥ ६४३ ॥