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मूलाचार
धृतिप्रग्रहप्रग्रहीता छिंदति भवस्य मूलानि ॥ ८०९ ॥ अर्थ - देहमें ममत्वरहित शमभावमें रुचिवाले आत्माको उपशमभावमें प्राप्त करते हुए धैर्यरूपी बलकर सहित ऐसे महामुनि संसारके मूलको छेदन करते हैं ॥। ८०९ ॥
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छट्टमभत्तेहिं पारंति य परघरम्मि भिक्खाए । जमणट्ठे भुंजंति य णवि य पयामं रसट्ठाए ॥ ८१० ॥ षष्ठाष्टमभक्तैः पारयति च परगृहे भिक्षया । यावदर्थं भुंजते च नापि च प्रकामं रसार्थाय ॥ ८१० ॥ अर्थ - बेला तेला आदि उपवासोंकर वे मुनि परघरमें भिक्षावृत्तिसे चारित्र के साधनार्थ भोजन करते हैं खाध्यायमें प्रवृत्ति हो उतनामात्र जीमते हैं सुरसके कारण बहुत भोजन नहीं करते ८१० णवकोडीपरिसुद्धं दसदोसविवज्जियं मलविसुद्धं । भुंजंति पाणिपत्ते परेण दत्तं परघरम्मि ॥ ८११ ॥ नवकोटिपरिशुद्धं दशदोषविवर्जितं मलविशुद्धं । भुंजते पाणिपात्रेण परेण दत्तं परगृहे ।। ८११ ॥ अर्थ — मनवचनकाय कृतकारितअनुमोदनाकर शुद्ध शंकित आदि दोष रहित नखरोम आदि चौदह मलकर वर्जित परघरमें परकर दिये हुए ऐसे आहारको हाथरूप पात्रपर रखकर वे मुनि खाते हैं ॥ ८११ ॥
उद्देसिय कीयडं अण्णादं संकिदं अभिहडं च । सुत्तप्पडिकुट्ठाणि य पडिसिद्धं तं विवजेंति ॥ ८१२ ॥ औद्देशिकं क्रीततरं अज्ञातं शंकितं अभिघटं च । सूत्रप्रतिकूलं च प्रतिसिद्धं तत् विवर्जयंति ॥ ८१२ ॥