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मूलाचार
इनका आश्रयकर जिस क्षेत्रमें ज्ञान दर्शन तपमें चारित्रको पालता है उसीजगह शीघ्र ही सिद्धिको पाता है ॥ ८९३ ॥ धीरो वइरागपरो थोवं हि य सिक्खिदूण सिज्झदि हु। ण हि सिज्झहि वेरग्गविहीणो पढिदूण सव्वसत्थाए धीरो वैराग्यपरः स्तोकं हि शिक्षित्वा सिध्यति हि।
न हि सिध्यति वैराग्यविहीनः पठित्वा सर्वशास्त्राणि ८९४ - अर्थ-जो उपसर्ग सहने में समर्थ संसार शरीर भोगोंसे वैराग्यरूप है वह थोड़ा भी शास्त्र पढा हो तो भी कर्मों का नाश करता है और जो वैराग्यरहित है वह सब शास्त्र भी पढ जाय तो भी कर्म क्षय नहीं करसकता ॥ ८९४ ॥ भिक्खं चर वस रणे थोवं जेमेहि मा बहू जंप । दुःखं सह जिण णिद्दा मेत्तिं भावेहि सुदु वेरग्गं८९५ भिक्षां चर वस अरण्ये स्तोकं जेम मा बहु जल्प । दुःखं सह जय निद्रां मैत्री भावय सुष्ठ वैराग्यं ॥ ८९५ ॥
अर्थ-हे मुने सम्यक् चारित्र पालना है तो भिक्षा भोजन कर, वनमें रह, थोड़ा आहार कर, बहुत मत बोल दुःखको सहन कर, निद्राको जीत मैत्रीभावका चितवन कर अच्छीतरह वैराग्य परिणाम रख ॥ ८९५ ॥ अव्ववहारी एको झाणे एयग्गमणो भवे णिरारंभो। चत्तकसायपरिग्गह पयत्तचेट्ठो असंगो य ॥ ८९६ ॥
अव्यवहारी एको ध्याने एकाग्रमना भवेनिरारंभः । त्यक्तकषायपरिग्रहः प्रयतचेष्टः असंगश्च ॥ ८९६ ॥ अर्थ-व्यवहाररहित हो, ज्ञानदर्शनके सिवाय कोई मेरा नहीं