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समयसाराधिकार १० ।
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प्रतिलेखनेन प्रतिलिख्यते लिंगं च भवति खपक्षे ॥ ९९४ ॥ अर्थ - कायोत्सर्ग में गमन में कमंडलु आदिके उठाने में पुस्तकादिके रखनेमें शयनेमें आसनमें झूठनके साफ करनेमें यत्नसे पीछीकर जीवों की रक्षा कीजाती है और यह मुनि संयमी है ऐसा अपनी पक्षमें चिन्ह होजाता है ॥ ९९४ ॥
पोसह उवओ पक्खे तह साहू जो करेदि णियदं तु । णावाए कल्लाणं चादुम्मासेण नियमेण ॥ ९९५ ॥
प्रौषधं उभयोः पक्षयोः तथा साधुः यः करोति नियतं तु । नापाये कल्याणं चातुर्मासेन नियमेन ।। ९९५ ॥ अर्थ — जो साधु चातुर्मासिक प्रतिक्रमणके नियमसे दोनों चतुर्दशीतिथियोंमें प्रोषधोपवास अवश्य करता है वह परमसुखका नाश नहीं करता अर्थात् सुखकी प्राप्ति आवश्य होती है ॥ ९९५ ॥ पिंडोवधिसेजाओ अविसोधिय जो य भुंजदे समणो । मूलट्ठाणं पत्तो भुवणेसु हवे समणपोल्लो ॥ ९९६ ॥
पिंडोपधिशय्या अविशोध्य यश्च भुंक्त श्रमणः ।
मूलस्थानं प्राप्तः भुवनेषु भवेत् श्रमणतुच्छः ॥ ९१६ ॥ अर्थ — जो मुनि आहार उपकरण आवास इनको न सोधकर सेवन करता है वह मुनि ग्रहस्थपनेको प्राप्त होता है और लोकमें मुनिपनेसे हीन कहा जाता है ॥ ९९६ ॥
तस्स ण सुज्झइ चरियं तवसंजमणिच्चकालपरिहीणं । आवासयं ण सुज्झइ चिरपव्वइयोवि जइ होइ ९१७ तस्य न शुध्यति चारित्रं तपःसंयमनित्यकालपरिहीनं । आवश्यकं न शुध्यति चिरप्रत्रजितोपि यदि भवति ॥९१७॥