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समयसाराधिकार १०।
और वहांपर निषद्या ( आसन ) शयन खाध्याय आहार और प्रतिक्रमण करना योग्य नहीं है ॥ ९५२ ॥ होदि दुगुंछा दुविहा ववहारादो तधा य परमहो। पयदेण य परमहे ववहारेण य तहा पच्छा ॥ ९५३ ॥
भवति जुगुप्सा द्विविधा व्यवहारात् तथा च परमाथों । प्रयत्नेन च परमार्था व्यवहारेण च तथा पश्चात् ॥ ९५३ ॥
अर्थ-आर्यिकाके स्थानमें मुनिके जुगुप्सा दोप्रकारकी है एक व्यवहार दूसरी परमार्थ अर्थात् लोकनिंदा व व्रतभंग । यत्न करके पहले परमार्थ होती है पीछे लोकनिंदारूप व्यवहारजुगुप्सा होती है ॥ ९५३ ॥ वड्ढदि बोही संसग्गेण तध पुणो विणस्सेदि । संसग्गविसेसेण दु उप्पलगंधो जहा गंधो ॥ ९५४ ॥
वर्धते बोधिः संसर्गेण तथा पुनर्विनश्यति । संसर्गविशेषेण तु उत्पलगंधो यथा गंधः ॥ ९५४ ॥
अर्थ-संगतिसे ही सम्यग्दर्शनादिकी शुद्धि बढती है और संगतिसे ही नष्ट होजाती है जैसे कमलादिकी गंधके संबंधसे शीतल सुगंधित जल होजाता है और अमि आदिके संबंधसे जल उष्ण तथा विरस होजाता है ॥ ९५४ ॥ चंडो चवलो मंदो तह साहू पुहिमंसपडिसेवी। गारवकसायबहुलो दुरासओ होदि सो समणो॥९५५
चंडः चपलो मंदः तथा साधुः पृष्टिमांसप्रतिसेवी । गौरवकषायबहुलो दुराश्रयो भवति स श्रमणः ॥ ९५५ ॥ अर्थ-जो अत्यंत क्रोधी हो चंचलखभाववाला हो चारित्रमें