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समयसाराधिकार १०।
३४७ एवं ससूत्रपुरुषो न नश्यति तथा प्रमाददोषेण ॥ ९७१ ॥
अर्थ-जैसे सुई सूक्ष्म भी प्रमाददोषसे कूडेमें गिरी हुई डोराकर सहित हुई नष्ट नहीं होती है देखनेसे मिलजाती है उसीतरह शास्त्रखाध्याययुक्त पुरुष भी प्रमाददोषसे उत्कृष्ट तप रहित हुआ भी संसाररूपी गड्ढे में नहीं पड़ता ॥ ९७१ ॥ णिइं जिणेहि णिचं णिद्दा खलु णरमचेदणं कुणदि। वहेज हू पसूतो समणो सव्वेसु दोसेसु ॥९७२ ॥ निद्रां जय नित्यं निद्रा खलु नरमचेतनं करोति । वर्तेत हि प्रसुप्तः श्रमणः सर्वेषु दोषेषु ॥ ९७२ ॥
अर्थ-हे साधु तू निद्राको जीत क्योंकि निद्रा मनुष्यको विवेकरहित अचेतन बना देती है। सोता हुआ मुनि सब दोषोंमें प्रवर्तता है ॥ ९७२ ॥ जह उसुगारो उसुमुज्जु कुणई संपिडियेहिं णयणेहिं । तह साहू भावेजो चित्तं एयग्गभावेण ॥ ९७३ ॥
यथा इषुकार इषु ऋजु करोति संपिडिताभ्यां नयनाभ्यां । तथा साधुः भावयेत् चित्तं एकाग्रभावेन ॥ ९७३ ॥
अर्थ-जैसे धनुषका कर्ता बाणको मिलाये दोनों नेत्रोंकर सरल करता है उसीतरह साधु भी स्थिर वृत्तिकर मनका अभ्यास करे ॥ ९७३ ॥ कम्मस्स बंधमोक्खो जीवाजीवे य व्वपज्जाए। संसारसरीराणि य भोगविरत्तो सया झाहि ॥९७४॥ कर्मणो बंधमोक्षौ जीवाजीवौ च द्रव्यपर्यायान् । संसारशरीराणि च भोगविरक्तः सदा ध्याय ॥ ९७४ ॥