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... मूलाचारहित जीव है वही देवायुके जीवन विशिष्ट है । पर्यायसे भेद है वैसे द्रव्य अपेक्षा एक ही है ॥ ९८० ।। संखेजमसंखेजमणंतकप्पं च केवलण्णाणं। तह रायदोसमोहा अण्णेवि य जीवपजाया ॥९८१॥ संख्येयमसंख्येयमनंतकल्पं च केवलज्ञानं । तथा रागद्वेषमोहा अन्येपि च जीवपर्यायाः ॥९८१ ॥
अर्थ-संख्यात विषय मतिज्ञान श्रुतज्ञान असंख्यातविषय अवधिज्ञान मनःपर्ययज्ञान अनंत विषय केवलज्ञान है ये तथा राग द्वेष मोह अन्य नारकादि भी-ये सब जीवके पर्याय हैं।।९८१ अकसायं तु चरित्तं कसायवसिओ असंजदो होदि । उवसमदि जमि काले तत्काले संजदो होदि ॥ ९८२॥
अकषायं तु चारित्रं कषायवशगः असंयतो भवति । उपशाम्यति यस्मिन् काले तत्काले संयतो भवति ॥९८२॥
अर्थ-अकषायपनेको चारित्र कहते हैं क्योंकि कषायके वशमें हुआ असंयमी होता है जिस कालमें कषाय नहीं करता उसीकालमें चारित्रवान होता है ॥९८२ ॥ वरं गणपवेसादो विवाहस्स पवेसणं। विवाहे रागउप्पत्ति गणो दोसाणमागरो॥९८३ ॥
वरं गणप्रवेशात् विवाहस्य प्रवेशनं ।
विवाहे रागोत्पत्तिः गणो दोषाणामाकरः ॥९८३॥ ' अर्थ-साधु कुलमें शिष्यादिमें मोह करनेकी अपेक्षा विवाहमें प्रवेश करना ठीक है। क्योंकि विवाहमें स्त्री आदिके ग्रहणसे