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समयसाराधिकार १०। तृतीयं गंधमाल्यानि चतुर्थ गीतवादित्रं ॥ ९९६ ॥ तथा शयनशोधनमपि च स्त्रीसंसर्गोपि अर्थसंग्रहणं । पूर्वरतिस्मरणं इंद्रियविषयरतिः प्रणीतरससेवा ॥ ९९७ ॥ दशविधमब्रह्म इदं संसारमहादुःखानामावाहं । परिहरति यो महात्मा स दृढब्रह्मव्रतो भवति ॥ ९९८ ॥
अर्थ-प्रथम तो बहुत भोजन करना, दूसरा तैलादिसे शरीरका संस्कार, तीसरा सुगंध पुष्पमाला आदि, चौथा गायन वाजा अब्रह्मचर्य । शय्या क्रीडाघर चित्रशाला आदि एकांतस्थानोंका तलाश करना कटाक्षसे देखनेवाली स्त्रियोंके साथ खेल करना, आभूषण वस्त्रादिका पहरना, पूर्वसमयके भोगोंकी याद, रूपादि विषयोंमें प्रेम, इष्ट पुष्टरसका सेवन-इसतरह ये दसतरहका अब्रह्मचर्य संसारके महा दुःखोंका स्थान है इसको जो महात्मा संयमी त्यागता है वही दृढ ब्रह्मचर्यव्रतका धारी होता है ॥ ९९६-९९८ ॥ कोहमदमायलोहेहिं परिग्गहे लयइ संसजइ जीवो। तेणुभयसंगचाओ कायव्वो सव्वसाहूहिं ॥ ९९९ ॥
क्रोधमदमायालोभैः परिग्रहे लगति संसजति जीवः।
तेनोभयसंगत्यागः कर्तव्यः सर्वसाधुभिः ॥ ९९९ ॥ __ अर्थ-क्रोध मान माया लोभ इन करके यह जीव परिग्रहमें लीन होता है और ग्रहण करता है इसलिये सब साधुओंको दोनोंतरहके परिग्रहका त्याग करना योग्य है ॥ ९९९ ॥ णिस्संगो णिरारंभो भिक्खाचरियाए सुद्धभावो य । एगागी झाणरदो सव्वगुणड्ढो हवे समणो ॥१०००॥