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समयसाराधिकार १०। ३५१ रागकी उत्पत्ति होती है और गण तो कषाय राग द्वेष आदि सब दोषोंकी खानि है ।। ९८३ ॥ पच्चयभूदा दोसा पचयभावेण णत्थि उप्पत्ती। पचयभावे दोसा णस्संति णिरासया जहा वीयं॥९८४
प्रत्ययभूता दोषा प्रत्ययाभावेन नास्ति उत्पत्तिः । प्रत्ययाभावात् दोषा नश्यति निराश्रया यथा बीज॥९८४॥
अर्थ-मोहके करनेसे राग द्वेषादिक दोष उत्पन्न होते हैं और कारणके अभावसे दोषोंकी उत्पत्ति नहीं होती इसलिये कारणके अभावसे मिथ्यात्व असंयम कषाय योगकर रचे जीवके दोषरूप परिणाम वे निराधार हुए बीजकी तरह निर्मूल क्षयको प्राप्त होते हैं ॥ ९८४ ॥ हेदू पञ्चयभूदा हेदुविणासे विणासमुवयंति। तह्मा हेदुविणासो कायव्वो सव्वसाहहिं ॥ ९८५॥
हेतवः प्रत्ययभूता हेतुविनाशे विनाशमुपयांति । तसात् हेतुविनाशः कर्तव्यः सर्वसाधुभिः ॥९८५ ॥
अर्थ-क्रोधादिक हेतु परिग्रहादिके कारण हैं लोभादि हेतुके नाश होनेसे परिग्रहादिक नाशको प्राप्त होते हैं इसलिये सब साधुओंको हेतुका नाश करना चाहिये ॥ ९८५ ॥ जं जं जे जे जीवा पज्जायं परिणमंति संसारे। रायस्स य दोसस्स य मोहस्स वसा मुणेयव्वा ॥९८६
यं यं ये ये जीवाः पर्यायं परिणमंति संसारे । रागस्य च दोषस्य च मोहस्य वशात् ज्ञातव्याः ॥९८६॥ अर्थ-इस संसार में जो जो जीव जिस जिस पर्यायको ग्रहण