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मूलाचार
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बीहेदव्वं णिचं दुज्जणवयणा पलोइजिन्भस्स । वरणयरणिग्गमं मिव वयणकयारं वहतस्स ॥ ९६२ ॥ भेतव्यं नित्यं दुर्जनवचनात् प्रलोटजिह्वातः । वरनगरनिर्गमादिव वचनकचारं वहतः ॥ ९६२ ॥ अर्थ - पूर्वापर भावकी अपेक्षारहित कहनेवाले दुर्जनके वचनसे सदा ही भय करना चाहिये । क्योंकि वह दुर्जनवचन श्रेष्ठनगरके जलके निकलनेके स्थान समान है वह वचनरूपी कूड़ेको धारण करता है ॥ ९६२ ॥
आयरियत्तणमुवणयह जो मुणी आगमं ण याणंतो । अप्पाणपि विणासिय अण्णेवि पुणो विणासेई ॥ ९६३ आचार्यत्वमुपनयति यो मुनिरागमं न जानन् । आत्मानमपि विनाश्य अन्यानपि पुनः विनाशयति ॥ ९६३ ॥ अर्थ — जो मुनि आगमको नहीं जानता अपनेको आचार्य मान लेता है वह अपना नाश कर दूसरोंको भी नष्ट करता है ॥ ९६३ घोडयलद्दिसमाणस्स बाहिर बगणिहृदकरणचरणस्स । अभंतरमि कुहिस्स तस्स दु किं बज्झजोगेहिं ९६४
घोटकलादिसमानस्य बाह्येन बकनिभृतकरणचरणस्य । अभ्यंतरे कुथितस्य तस्य तु किं बाह्ययोगैः ॥ ९६४ ॥ अर्थ — घोड़े की लीदके समान अंतरंगमें कलुषित और बाहिरी वेशसे निश्चलहाथ पांववाले बगलेके समान ऐसे मूलगुणरहित साधुके बाह्य वृक्षमूलादि योगोंसे क्या लाभ है ? कुछ भी नहीं ॥ ९६४ ॥
मा होह वासगणणा ण तत्थ वासाणि परिगणिज्वंति ।