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समयसाराधिकार १०। जो भुंजदि आधाकम्मं छज्जीवाण घायणं किच्चा। अबुहो लोल सजिब्भोणवि समणो सावओ होज९२७ यो भुंक्ते अधःकर्म षट्जीवानां घातनं कृत्वा ।। अबुधो लोलः सजिह्वः नापि श्रमणः श्रावकः भवेत्॥९२७
अर्थ-जो मूढमुनि छहकायके जीवोंका घात करके अधः कर्मकर सहित भोजन करता है वह लोलपी जिह्वाके वश हुआ मुनि नहीं है श्रावक है ॥ ९२७ ॥ पयणं व पायणं वा अणुमणचित्तो ण तत्थ बीहेदि । जेमंतोवि सघादी णवि समणो दिहिसंपण्णो ॥९२८॥ पचने वा पाचने वा अनुमनचित्तो न तत्र विभेति । जेमंतोपि स्वघाती नापि श्रमणः दृष्टिसंपन्नः ॥ ९२८ ॥
अर्थ-पाक करनेमें अथवा पाक करानेमें पांचउपकरणोंसे अधःकर्ममें प्रवृत्त हुआ और अनुमोदनामें प्रसन्न जो मुनि उस पचनादिसे नहीं डरता वह मुनि भोजन करता हुआ भी आत्मघाती है । न तो मुनि है और न सम्यग्दृष्टि है ॥ ९२८ ॥ ण हु तस्स इमो लोओ णवि परलोओत्तमट्ठभट्ठस्स। लिंगग्गहणं तस्स दुणिरत्थयं संजमेण हीणस्स ९२९
न हि तस्य अयं लोकः नापि परलोक उत्तमार्थभ्रष्टस्य । लिंगग्रहणं तस्य तु निरर्थकं संयमेन हीनस्य ॥ ९२९ ॥ अर्थ-जो चारित्रसे भ्रष्ट है उसमुनिके यह लोक भी नहीं और परलोक भी नहीं । संयमरहित उस मुनिके मुनिलिंगका धारण करना व्यर्थ है ॥ ९२९ ॥ पायच्छित्तं आलोयणं च काऊण गुरुसयासह्मि ।