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समयसाराधिकार १०।
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बहुकमपि श्रुतमधीतं किं करिष्यति अजानतः । दीपविशेषः अंधे ज्ञानविशेषोपि तथा तस्य ॥ ९३३ ॥ .
अर्थ-जो उपयोगरहित है चारित्रहीन है वह बहुतसे शास्त्रोंको भी पढले तो उस साधुके वह शास्त्रज्ञान क्या करसकता है कुछ भी नहीं । जैसे अंधेके हाथमें दीपक उसीतरह उसका ज्ञान भी कार्यकारी नहीं है ॥ ९३३ ॥ आधाकम्मपरिणदो फासुगदव्वेवि बंधगो भणिदो। सुद्धं गवेसमाणो आधाकम्मेवि सो सुद्धो ॥ ९३४॥
अधःकर्मपरिणतः प्रासुकद्रव्येपि बंधको भणितः । शुद्धं गवेषमाणः अधःकर्मणापि स शुद्धः ॥ ९३४ ॥
अर्थ-प्रासुक द्रव्य होनेपर जो साधु अधःकर्मकर परिणत है वह आगममें बंधका कर्ता कहा है और जो शुद्धभोजन देखता ग्रहणकरता है वह अधःकर्म दोषसे परिणामशुद्धिसे शुद्ध है ९३४ भावुग्गमो य दुविहो पसत्थपरिणाम अप्पसत्थोत्ति। सुद्धे असुद्धभावो होदि उवट्ठावणं पायछितं ॥ ९३५॥ भावोद्गमश्च द्विविधः प्रशस्तपरिणामः अप्रशस्त इति । शुद्धे अशुद्धभावो भवति उपस्थापनं प्रायश्चित्तं ॥ ९३५ ॥
अर्थ-भावदोष दोप्रकारका है एक प्रशस्तपरिणाम दूसरा अप्रशस्त परिणाम । जो शुद्धवस्तुमें अशुद्धभाव करता है वहां उपस्थापन नामा प्रायश्चित्त है ॥ ९३५ ॥ फासुगदाणं फासुग उवधि तह दोवि अत्तसोधीए। जो देदि जो य गिण्हदि दोण्हंपि महाफलं होइ।।९३६ प्रासुकदानं प्रासुकमुपधिं तथा द्वयमपि आत्मशुद्ध्या।
सुद्धे असुशा द्विविधा उपस्थापन