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समयसाराधिकार १०। है वही दान सब दानोंमें उत्तम है और वह दान सब आचरणोंमें प्रधान आचरण है ॥ ९३९ ॥ सम्मादिहिस्स वि अविरदस्स ण तवो महागुणोहोदि। होदि हु हथिण्हाणं चुंदच्छिदकम्म तं तस्स ॥९४०॥ सम्यग्दृष्टेरपि अविरतस्य न तपो महागुणो भवति । भवति हि हस्तिस्नानं चुंदच्छित्कर्म तत् तस्य ॥ ९४० ॥
अर्थ-संयमरहित अविरतसम्यग्दृष्टिके भी तप महान् उपकारी नहीं है उसका तप हाथी के स्वानकी तरह जानना अथवा दहीमथनेकी रस्सीकी तरह जानना, रस्सी एक तरफसे खुलती जाती एक तरफसे बंधती जाती है ॥ ९४० ॥ वेजादुरभेसज्जापरिचारयसंयदा जहारोग्गं । गुरुसिस्सरयणसाहणसंयत्तीए तहा मोक्खो ॥९४१॥
वैद्यातुरभैषज्यपरिचारकसंयत्या यथा आरोग्यं । गुरुशिष्यरत्नसाधनसंयत्या तथा मोक्षः ॥ ९४१ ॥
अर्थ-जैसे वैद्य रोगी औषध और वैयावृत्य ( टहल ) करनेवालोंके मिलनेसे रोगी रोगरहित होजाता है उसीतरह गुरु विनयवान् शिष्य सम्यग्दर्शनादि रत्न और पुस्तक कमंडलु पीछी आदि साधन इन सबके संयोगसे मोक्ष होता है ।। ९४१ ॥ आइरिओवि य वेजो सिस्सो रोगी दु भेसजं चरिया। खेत्त बल काल पुरिसं णाऊण सार्ण दढं कुज्जा॥९४२॥ आचार्योपि च वैद्यः शिष्यो रोगी तु भेषजं चर्या । क्षेत्रं बलं कालं पुरुषं ज्ञात्वा शनैः दृढं कुर्यात् ॥ ९४२ ॥ अर्थ-आचार्य तो वैद्य हैं शिष्य रोगी है औषध चारित्र है
२२ मूला.