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मूलाचारतं चेव पुणो भुंजदि आधाकम्मं असुहकम्मं ॥९३०॥
प्रायश्चित्तं आलोचनं च कृत्वा गुरुसकाशे। तदेव पुनः भुंक्ते अधःकर्म अशुभकर्म ॥ ९३०॥
अर्थ-कोई साधु गुरुके पास जाकर दोषका हटाना और दोषको प्रगट करना इनको करके फिर पीछे अधःकर्मयुक्त भोजनको खाता है उसके पापबंध ही होता है और दोनों लोकसे भ्रष्ट होता है ॥ ९३० ॥ जो जट्ठ जहा लद्धं गेण्हदि आहारमुवधियादीयं । समणगुणमुक्कजोगी संसारपवड्ढओ होदि ॥ ९३१॥
यो यत्र यथा लब्धं गृह्णाति आहारमुपधिकादिकं । श्रमणगुणमुक्तयोगी संसारप्रवर्धको भवति ॥ ९३१ ॥
अर्थ-जो साधु जिस शुद्ध अशुद्ध देशमें जैसा शुद्ध अशुद्ध मिला आहार व उपकरण ग्रहण करता है वह श्रमणगुणसे रहित योगी संसारका वढानेवाला ही होता है ॥ ९३१ ॥ पयणं पायणमणुमणणं सेवंतो ण संजदो होदि। जेमंतोवि य जमा णवि समणो संजमो णत्थि॥९३२॥ पचनं पाचनमनुमननं सेवमानो न संयतो भवति । जेमंतोपि च यसात् नापि श्रमणः संयमो नास्ति ॥ ९३२
अर्थ-पचन पाचन अनुमोदना इनको सेवन करता हुआ मुनि संयमी नहीं होसकता और ऐसे भोजन करता श्रमण भी नहीं है तथा उसमें संयम भी नहीं है ॥ ९३२ ॥ बहुगंपि सुदमधीदं किं काहदि अजाणमाणस्स। दीवविसेसो अंधे णाणविसेसोवि तह तस्स ॥ ९३३॥