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मूलाचार
हो व अच्छीतरह मनन करलिया हो तौभी चारित्रसे भ्रष्ट होनेपर उस मुनिको सुगतिमें वह ज्ञान नहीं लेजा सकता। इसलिये चारित्रमुख्य है ॥ ९०५ ॥ जदि पडदि दीवहत्थो अवडे किं कुणदि तस्स सोदीवो। जदि सिक्खिऊण अणयं करेदि किं तस्स सिक्खफलं॥ यदि पतति दीपहस्तः अवटे किं करोति तस्य स दीपः। यदि शिक्षित्वा अनयं करोति किं तस्य शिक्षाफलं॥९०६॥
अर्थ-जो हाथमें दीपकलिये हुए है ऐसा पुरुष यदि कुएमें गिरजाय तो उसको दीपक लेनेसे क्या लाभ है ? कुछ भी नहीं । उसीतरह शस्त्र पढकर जो चारित्रका भंग करे तो उसके शास्त्र पढनेसे कुछ फायदा नहीं है ॥९०६ ॥ पिंडं सेजं उवधि उग्गमउप्पादणेसणादीहिं । चारित्तरक्खण8 सोधणयं होदि सुचरित्तं ॥९०७॥ पिंडं शय्यां उपधिं उद्गमोत्पादनैषणादिभ्यः । चारित्ररक्षणार्थ शोधयन् भवति सुचारित्रं ॥ ९०७॥
अर्थ-जो साधु चारित्रकी रक्षाके लिये भिक्षा शय्या और ज्ञान संयम शौचके उपकरणोंको उद्गम उत्पादन और एषणादि दोषोंसे शोधता है वही सुचारित्रवाला होता है । दोषोंका न होना वही शुद्धि है ।। ९०७॥ अचेलकं लोचो वोसट्टसरीरदा य पडिलिहणं । एसो हु लिंगकप्पो चदुविधो होदि णादव्वो ॥९०८॥
अचेलकत्वं लोचो व्युत्सृष्टशरीरता च प्रतिलेखनं । . एष हि लिंगकल्पः चतुर्विधो भवति ज्ञातव्यः ॥ ९०८॥