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मूलाचार.' अर्थ-ज्ञान तो द्रव्यखरूपका प्रकाश करनेवाला है, तप कर्मोंका नाशक है, चारित्र रक्षक है । इन तीनोंके संयोगसे जिनमतमें मोक्ष नियमसे होता है ॥ ८९९ ॥ णाणं करणविहीणं लिंगग्गहणं च संजमविहूणं। दसणरहिदो य तवो जो कुणइ णिरत्थयं कुणदि९००
ज्ञानं करणविहीनं लिंगग्रहणं च संयमविहीनं । दर्शनरहितं च तपः यः करोति निरर्थकं करोति ॥९००॥
अर्थ-जो पुरुष षडावश्यकादि क्रिया रहित ज्ञानको संयमरहित जिनरूप नम लिंगको, सम्यक्त्वरहित तपको धारण करता है उस पुरुषके ज्ञानादिका होना निष्फल है ॥ ९०० ॥ तवेणधीरा विधुणंति पावं अज्झप्पजोगेण खवंति मोह। संखीणमोहाधुदरागदोसा ते उत्तमा सिद्धिगर्दि पयंति
तपसा धीरा विधुन्वंति पापं अध्यात्मयोगेन क्षपयंति मोहं। संक्षीणमोहा धुतरागद्वेषाः ते उत्तमाः सिद्धिगतिं प्रयांति९०१
अर्थ-सम्यग्ज्ञानादिसे युक्त तपकरके समर्थमुनि अशुभकर्मों का नाश करते हैं, परमध्यानकर दर्शनमोहादिका क्षय करते हैं। पश्चात् मोहरहित हुए तथा रागद्वेषरहित हुए वे उत्तम साधुजन मोक्षको प्राप्त होते हैं ॥ ९०१ ॥ लेस्साझाणतवेण य चरियविसेसेण सुग्गई होई। तह्मा इदराभावे झाणं संभावये धीरो॥९०२॥
लेश्याध्यानतपसा च चारित्रविशेषेण सुगतिः भवति । तसात् इतराभावे ध्यानं संभावयेत् धीरः॥९०२॥ अर्थ-लेश्या ध्यान तप चारित्र इनके विशेषसे उत्तम खर्गादि