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समयसाराधिकार १०।
३२३ ऐसा एक भावका चिंतवन कर, शुभध्यानमें एकाग्रचित्त हो, आरंभरहित हो, कषाय और परिग्रहको छोड़ आत्महितमें उद्यमी हो, किसीकी संगति मत कर ॥ ८९६ ॥ थोवह्मि सिक्खिदे जिणइ बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो। जो पुण चरित्तहीणो किं तस्स सुदेण बहुएण।।८९७॥ स्तोके शिक्षिते जयति बहुश्रुतं यः चारित्रसंपूर्णः। यः पुनः चारित्रहीनः किं तस्य श्रुतेन बहुकेन ॥ ८९७ ॥
अर्थ-जो मुनि चारित्रसे पूर्ण है वह थोड़ासा भी पंचमनस्कारादि पढा हुआ दशपूर्वके पाठीको जीत लेता है क्योंकि जो चारित्ररहित है वह बहुतसे शास्त्रों का जाननेवाला होजाय तो भी उसके बहुत शास्त्र पढे होनेसे क्या लाभ है ? कुछ लाभ नहीं । चारित्रपाले विना काँका क्षय नहीं होसकता ॥ ८९७ ॥ . णिज्जावगो य णाणं वादो झाणं चरित्त णावा हि । भवसागरं तु भविया तरंति तिहिसणिपायेण ॥८९८ निर्यापकश्च ज्ञानं वातः ध्यानं चारित्रं नौर्हि । भवसागरं तु भव्याः तरंति त्रिसन्निपातेन ॥ ८९८ ॥
अर्थ-जिहाज चलानेवाला निर्यापक तो ज्ञान है पवनकी जगह ध्यान है और चारित्र जिहाज है इन ज्ञान ध्यान चारित्र तीनोंके मेलसे भव्यजीव संसारसमुद्रसे पार होजाते हैं ॥ ८९८ ॥ णाणं पयासओ तवो सोधओ संजमो य गुत्तियरो। तिण्हंपि य संजोगे होदि हु जिणसासणे मोक्खो८९९
ज्ञानं प्रकाशकं तपः शोधकं संयमश्च गुप्तिकरः। . त्रयाणामपि च संयोगे भवति हि जिनशासने मोक्षः॥८९९