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अनगारभावनाधिकार ९। ३१७ अर्थ-संजमी मुनियोंने राग द्वेष मोह ये तो रत्नत्रयमें दृढ भावनारूप धृतिसे अच्छीतरह जीत लिये और व्रत उपवासरूपी हथियारोंकर पांच इंद्रियोंको वशमें किया ॥ ८८० ॥ दंतेंदिया महरिसी रागं दोसं च ते खवेदूणं । झाणोवओगजुत्ता खवेंति कम्मं खविदमोहा ॥८८१॥
दांतेंद्रिया महर्षयो राग द्वेषं च ते क्षपित्वा । ध्यानोपयोगयुक्ताः क्षपयंति कर्माणि क्षपितमोहाः॥ ८८१
अर्थ-इंद्रियोंको वश करनेवाले महामुनि शुद्धोपयोग सहित समीचीन ध्यानको प्राप्त हुए राग द्वेषकर विकारोंका नाशकर मोहरहित हुए सब कर्मोंका क्षय कर देते हैं ॥ ८८१ ॥ अट्टविहकम्ममूलं खविद कसाया खमादिजुत्तेहिं । उडूदमूलो व दुमो ण जाइदव्वं पुणो अस्थि ॥८८२॥
अष्टविधकर्ममूलं क्षपिताः कषायाः क्षमादियुक्तैः । उद्भूतमूल इव दुमो न जनितव्यं पुनरस्ति ॥ ८८२ ॥
अर्थ-आठ प्रकार कर्मोंका मूलकारण क्रोधादि कषायोंको क्षमादि गुण सहित मुनिराजोंने नष्ट करदिया है इसलिये निर्मूल हुए वृक्षकी तरह फिर उन कषायोंकी उत्पत्ति नहीं होसकती ८८२ अवहट्ट अट्टरुदं धम्मं सुकं च झाणमोगाढं । ण च एदि पधंसेदु अणियही सुक्कलेस्साए ॥ ८८३॥
अपहृत्य आर्त रौद्रं धर्म शुक्लं च ध्यानमवगाढं । न च यंति प्रध्वंसयितुं अनिवृत्ति शुक्ललेश्यया ॥ ८८३॥
अर्थ-कषायोंके निर्मूल करनेकेलिये आर्तध्यान रौद्रध्यानोंको छोड़कर धर्मध्यान शुक्लध्यानमें गाढ स्थित हुए और शुक्ल लेश्याकर