________________
अनगारभावनाधिकार ९।
२९९ अर्थ-अग्निकर नहीं पके ऐसे फल कंद मूल बीज तथा अन्य भी जो कच्चा पदार्थ उसको अभक्ष्य जानकर वे धीर वीर मुनि खानेकी इच्छा नहीं करते ॥ ८२५ ॥ जं हवदि अणिव्वीयं णिवहिमं फासुयं कयं चेव । णाऊण एसणीयं तं भिक्खं मुणी पडिच्छति ॥८२६॥ यत् भवति अनिर्बीजं निवर्तिमं प्रासुकं कृतं चैव । ज्ञात्वा अशनीयं तत् भैक्ष्यं मुनयः प्रतीच्छंति ॥ ८२६ ॥ अर्थ-जो निर्बीज हो और प्रासुक किया गया हो ऐसे आहारको खाने योग्य समझकर मुनिराज उसके लेनेकी इच्छा करते हैं ॥ ८२६ ॥ भोत्तूण गोयरग्गे तहेव मुणिणो पुणोवि पडिकंता। परिमिदएयाहारा खमणेण पुणोवि पारेति ॥ ८२७॥
भुक्त्वा गोचराग्रे तथैव मुनयः पुनरपि प्रतिक्रांताः। परिमितैकाहाराः क्षमणेन पुनरपि पारयति ॥ ८२७ ॥
अर्थ-एक वेलामें एकवार है आहार जिनके ऐसे मुनि भिक्षामें प्राप्त आहारको लेकर भी दोषोंके निवारण करनेके लिये प्रतिक्रमण करते हैं । और उपवास करके फिर भोजन करते हैं। ___ आगे ज्ञानशुद्धिको कहते हैं;ते लद्धणाणचक्खू णाणुज्जोएण दिठ्ठपरमट्ठा । णिस्संकिदणिव्विदिगिंछादबलपरक्कमा साधू ॥८२८॥
ते लब्धज्ञानचक्षुषो ज्ञानोद्योतेन दृष्टपरमार्थाः। निशंकानिर्विचिकित्सात्मबलपराक्रमाः साधवः ॥ ८२८॥ अर्थ-जिनोंने ज्ञान नेत्र पालिया है ऐसे हैं, ज्ञानरूपी प्रका