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अनगारभावनाधिकार ९। धूपसे शरीरका संस्कार करना कंठशुद्धिकेलिये वमन करना औषधादिकर दस्त लेना, नेत्रोंमें अंजन लगाना सुगंधतैलमर्दन करना चंदन कस्तूरीका लेप करना सलाई वत्ती आदिसे नासिकाकर्म वस्तिकर्म करना नसोंसे लोहीका निकालना ये सब संस्कार अपने शरीरमें साधुजन नहीं करते ॥ ८३७-८३८ ॥ उप्पण्णम्मि य वाही सिरवेयण कुक्खिवेयणं चेव । अधियासिंति सुधिदिया कायतिगिंछं ण इच्छंति८३९ उत्पन्ने च व्याधौ शिरोवेदनायां कुक्षिवेदनायां चैव । अध्यासंते सुधृतयः कायचिकित्सां न इच्छंति ॥ ८३९ ॥
अर्थ-ज्वररोगादिक उत्पन्न होनेपर भी तथा मस्तकमें पीड़ा उदरमें पीडाके होनेपर भी चारित्रमें दृढपरिणामवाले वे मुनि पीडाको सहन कर लेते हैं परंतु शरीरका इलाज करनेकी इच्छा नहीं रखते ॥ ८३९ ॥ णय दुम्मणा ण विहला अणाउला होंति चेय सप्पुरिसा णिप्पडियम्मसरीरा देंति उरं वाहिरोगाणं ॥ ८४०॥
न च दुर्मनसः न विकला अनाकुला भवंति चैव सत्पुरुषाः। निष्प्रतिकर्मशरीरा ददति उरो व्याधिरोगेभ्यः ॥८४०॥
अर्थ-वे सत्पुरुष रोगादिकके आनेपर मनमें खेदखिन्न नहीं होते, न विचार शून्यहोते हैं, न आकुल होते हैं किंतु शरीरमें प्रतीकार रहित हुए व्याधिरोगोंके लिये हृदय देदेते हैं अर्थात् सबको सहते हैं ॥ ८४०॥ जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूदं। जरमरणवाहिवेयण खयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥८४१॥