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अनगारभावनाधिकार ९। ३० एतादृशि शरीरे दुर्गधे कुणिपतिके अचौख्ये । सडनपतने असारे रागं न कुर्वति सत्पुरुषाः ॥ ८५० ॥
अर्थ-दुर्गंधयुक्त अशुचिद्रव्यकर भरा हुआ खच्छतारहित सड़ना पड़ना कर सहित साररहित ऐसे शरीरमें साधुजन प्रेम नहीं करते ॥ ८५० ॥ जं वंतं गिहवासे विसयसुहं इंदियत्थपरिभोये। तं खु ण कदाइभूदो भुंजंति पुणोवि सप्पुरिसा॥८५१
यत् वांतं गृहवासे विषयसुखं इंद्रियार्थपरिभोगात् । तत् खलु न कदाचिद्भूतं भुंजते पुनरपि सत्पुरुषाः ॥८५१॥
अर्थ--गृहवासमें रूपरसगंधस्पर्शशब्दोंके भोगसे उत्पन्न जो विषयसुख एक वार छोड़ दिया फिर कभी भी किसी कारणसे भी उसे उत्तमपुरुष नहीं भोगते ॥ ८५१॥ पुव्वरदिकेलिदाइं जा इड्डी भोगभोयणविहिं च । णवि ते कहंति कस्सचि णवितेमणसा विचिंतंति८५२
पूर्वरतिक्रीडितानि या ऋद्धिः भोगभोजनविधिश्च । नापि ते कथयंति कस्यचित् नापि ते मनसा विचिंतयंति८५२
अर्थ—पूर्वकालमें स्त्री वस्त्र आदि वारंवार भोगे और सुवर्ण चांदी आदि विभूति पुष्प गंध चंदन आदि भोग तथा घेवर फैनी आदि चतुर्विध आहार इनको भी अच्छी तरह भोगा उसे मुनि न तो किसीसे कहते हैं और न मनसे ही चिंतवन करते हैं। __ अब वचनशुद्धिको कहते हैंभासं विणयविहूणं धम्मविरोही विवजये वयणं । पुच्छिदमपुच्छिदं वा णवि ते भासंति सप्पुरिसा८५३