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अनगारभावनाधिकार ९। ३०१ धारणग्रहणसमर्थाः पदानुसारिणो बीजबुद्धयः। संभिन्नकोष्टबुद्धयः श्रुतसागरपारगा धीराः॥ ८३२ ॥ श्रुतरत्नपूर्णकरणा हेतुनयविशारदा विपुलबुद्धयः । निपुणार्थशास्त्रकुशलाः परमपदविज्ञायकाः श्रमणाः॥८३३॥ अपगतमानस्तंभा अनुत्सृता अगर्विता अचंडाश्च । दांता मार्दवयुक्ताः समयविदो विनीताश्च ॥ ८३४ ॥ उपलब्धपुण्यपापा जिनशासनगृहीतज्ञातपर्यायाः । करचरणसंवृतांगा ध्यानोपयुक्ता मुनयो भवंति ॥ ८३५ ॥
अर्थ-जिनके तपकी क्रिया निरंतर रहती है, उत्तम क्षमाके धारी, तपसे जिनका अंग क्षीण होगया है धीर गुणोंकर पूर्ण जिनका योग अभग्न है चारित्र दृढ है ऐसे मुनि हैं। जिनके गाल
वैठ गये हैं केवल भौंह मुंह दीखता है आखोंके तारेमात्र चमकते हैं ऐसे मुनि ज्ञान तपो भावनारूप धर्मलक्ष्मीकर सहित हुए तपको आचरते हैं। जिनोंने आगमसे ज्ञान प्राप्त किया है, अंग व्यंजनादि आठ निमित्तोंमें चतुर बुद्धिको प्राप्त हैं, बारह अंग चौदह पूर्वोको धारण करते हैं अर्थात् जानते हैं । अंगोंके अर्थ धारण ग्रहणमें समर्थ हैं, पदानुसारी बीजबुद्धि संभिन्नबुद्धि कोष्ठबुद्धि इन ऋद्धियोंकर सहित हैं श्रुतसमुद्रके पारगामी धीर ऐसे साधु हैं । श्रुतज्ञानरूपी रत्नकर जिनके कान भूषित हैं, हेतु नयोंमें निपुण हैं महान् बुद्धिवाले हैं संपूर्ण व्याकरणशास्त्र तर्क इनमें प्रवीण हैं मुक्तिखरूपके जाननेवाले हैं ऐसे साधु हैं। ज्ञानके अभिमानकर रहित जाति आदि आठ मदोंकर रहित कापोतलेश्यारहित क्रोधरहित हैं, इंद्रियोंके जयकर सहित कोमलपरिणाम