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मूलाचारजाते हैं वैसे वैसे इस जीवके अविनाशी मोक्षसुख अनुभव गोचर होता जाता है । ७५३ ॥ संसारविसमदुग्गे भवगहणे कहवि मे भमंतेण । दिट्ठो जिणवरदिट्ठो जेट्ठो धम्मोत्ति चिंतेजो ॥७१४॥
संसारविषमदुर्गे भवगहने कथमपि मया भ्रमता । दृष्टो जिनवरदिष्टो ज्येष्ठो धर्म इति चिंतयेत् ॥ ७५४ ॥
अर्थ-पंचपरावर्तनरूप संसारकर जिसका मार्ग विषम है ऐसे भववनमें भ्रमण करते हुए मैंने बडे कष्टसे जिनदेवकर उपदेशा महान् धर्म पाया ऐसा चिंतवन करना चाहिये ॥ ७५४ ॥ ___ आगे बोधिदुर्लभानुप्रेक्षाको कहते हैंसंसारह्मि अणंते जीवाणं दुल्लहं मणुस्सत्तं । जुगसमिलासंजोगो लवणसमुद्दे जहा चेव ॥ ७५५ ॥
संसारे अनंते जीवानां दुर्लभं मनुष्यत्वं । युगसमिलासंयोगो लवणसमुद्रे यथा एव ॥ ७५५ ॥
अर्थ-इस अनंत संसारमें जीवोंके मनुष्यजन्मका मिलना ऐसा दुर्लभ है जैसा · लवणसमुद्रमें युग और समिलाका संबंध । अर्थात् समुद्र के पूर्वभागमें तो जूड़ा डाला और पश्चिम भागमें समिला डाली अब उस समिलाका जूड़ेके छेदमें प्रवेश होना महान दुर्लभ है इसीतरह दाष्टीतमें जानना ।। ७५५ ॥ देसकुलजम्मरूवं आऊ आरोग्ग वीरियं विणओ। सवणं गहणं मदि धारणा य एदेवि दुल्लहा लोए ७५६ देशकुलजन्मरूपं आयुः आरोग्यं वीर्य विनयः । श्रमणं ग्रहणं मतिः धारणा च एतेपि दुर्लभा लोके।।७५६॥