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द्वादशानुप्रेक्षाधिकार ८।
२७५ धन्यास्तं प्रतिपन्ना विशुद्धमनसा जगति मनुजाः ॥७५०॥
अर्थ-सब भव्यजीवोंका हितकारी उत्तमक्षमादि धर्म तीर्थकर भगवानने उपदेशित किया है, उस धर्मको जो मनुष्य शुद्धचित्तसे प्राप्त हुए हैं वे जगतमें पुण्यवान् हैं ॥ ७५० ॥ जेणेह पाविदव्वं कल्लाणपरंपरं परमसोक्खं ।। सो जिणदेसिदधम्मं भावेणुववजदे पुरिसो॥७५१॥
येनेह प्राप्तव्यं कल्याणपरंपरां परमसौख्यं । स जिनदेशितं धर्म भावेन उपपद्यते पुरुषः ॥ ७५१ ॥
अर्थ-इस संसारमें जिस जीवको कल्याणकी परंपरावाला परम सुरव प्राप्त होना है वही जीव तीर्थकर उपदेशे हुए धर्मको भावसे सेवन करता है श्रद्धान करता है ।। ७५१ ॥ खंतीमद्दवअजवलाघवतवसंजमो अकिंचणदा। तह होइ बह्मचेरं सच्चं चागो य दसधम्मा ॥७५२ ॥
क्षांतिमार्दवार्जवलाघवतपःसंयमाः अकिंचनता। तथा भवति ब्रह्मचर्य सत्यं त्यागश्च दशधाः ॥७५२ ॥
अर्थ-उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव शौच तप संयम आकिंचन्य ब्रह्मचर्य सत्य त्याग ये दश मुनिधर्मके भेद हैं ॥ ७५२ ॥ उवसम दया य खंती वड्डइ वेरग्गदा य जह जहसो। तह तह य मोक्खसोक्खं अक्खीणं भावियं होइ७५३ उपशमो दया च शांतिः वर्धते वैराग्यता च यथा यथाशः। तथा तथा च मोक्षसौख्यं अक्षीणं भावितं भवति ॥७५३॥ अर्थ-शांति दया क्षमा वैराग्यभाव ये सब जैसे जैसे बढते