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मूलाचारस पुरुषः कापुरुषः शोचति कुगतिं गतः सन् ॥ ७५९ ॥
अर्थ-जिसका मिलना कठिन है ऐसी बोधिको पाकर जो मनुष्य प्रमाद करता है वह पुरुष निंदनीक पुरुष है और वह नरकादि गतिमें प्राप्त हुआ दुःखी होता है ॥ ७५९ ॥ उवसमखयमिस्सं वा बोधिं लडूण भवियपुंडरिओ। तवसंजमसंजुत्तो अक्खयसोक्खं तदा लहदि ॥७६०॥
उपशमक्षयमिश्रां वा बोधिं लब्ध्वा भव्यपुंडरीकः । तपःसंयमसंयुक्तः अक्षयसौख्यं तदा लभते ॥ ७६० ॥
अर्थ-पांचवीं करण लब्धिके वाद उपशम क्षयोपशम क्षायिक सम्यक्त्वरूप बोधिको यह उत्तम भव्यजीव पाता है फिर उस समय तप संयमकर सहित हुआ कर्मोंका नाशकर अविनाशी सुखको प्राप्त होजाता है ॥ ७६० ॥ तह्मा अहमवि णिचं सद्धासंवेगविरियविणएहिं । अत्ताणं तह भावे जह सा बोही हवे सुइरं ॥७६१॥ तसात् अहमपि नित्यं श्रद्धासंवेगवीर्यविनयैः । आत्मानं तथा भावयामि यथासा बोधिः भवेत् सुचिरं७६१
अर्थ-जिसकारण ऐसी बोधि है इसलिये मैं भी सबकाल श्रद्धा धर्मानुराग शक्ति विनय इनकर आत्माको इसतरह भाऊ जिससे कि यह बोधि बहुतकालतक रहे ॥ ७६१ ॥ बोधीय जीवव्वादियाइ बुज्झइ हु णववि तच्चाई। गुणसयसहस्सकलियं एवं बोहिं सया झाहि ॥७६२॥ बोध्या जीवद्रव्यादीनि बुध्यते हि नवापि तत्त्वानि । गुणशतसहस्रकलितां एवं बोधि सदा ध्याय ॥ ७६२॥