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द्वादशानुप्रेक्षाधिकार ८ । २६३ धर्माधर्माकाशानि गतिरागतिः जीवपुद्गलानां च । यावत्तावल्लोकः आकाशमतः परमनंतम् ॥ ७१३॥
अर्थ-धर्म अधर्म लोकाकाश और जितनेमें जीव पुद्गलोंका गमन आगमन है उतना ही लोक है । इसके आगे अंतरहित ( अनंत ) द्रव्योंके विश्रामरहित केवल आकाश है उसको अलोकाकाश कहते हैं ॥ ७१३ ॥ हिट्ठा मज्झे उवरि वेत्तासणझल्लरीमुदिंगणिओ। मज्झिमवित्थारेण दु चोदसगुणमायदो लोओ ॥७१४
अधो मध्ये उपरि वेत्रासनझल्लरीमृदंगनिमः। मध्यमविस्तारेण तु चतुर्दशगुण आयतो लोकः ॥७१४॥
अर्थ-यह लोक अधोदेशमें मध्यदेशमें ऊपरले प्रदेशमें क्रमसे वेत्रासन (मूंढा ), झालर, मृदंग इनके आकार है। मध्यके एक राजूविस्तारसे चौदहगुणा लंबा सब लोक है ॥७१४॥ तत्थणुहवंति जीवा सकम्मणिव्वत्तियं सुहं दुक्खं । जम्मणमरणपुणन्भवमणंतभवसायरे भीमे ॥७१५॥
तत्रानुभवंति जीवाः स्वकर्मनिवर्तितं सुखं दुःखं । जन्ममरणपुनर्भवं अनंतभवसागरे भीमे ॥ ७१५॥
अर्थ-उस लोकमें ये जीव अपने कर्मोंसे उपार्जन किये सुख दुःखको भोगते हैं और भयंकर इस अनंतभवसागरमें जन्ममरणको वारंवार अनुभवते हैं ॥ ७१५ ॥ मादा य होदि धूदा धूदा मादुत्तणं पुण उवेदि । पुरिसोवि तत्थ इत्थी पुमं च अपुमं च होइ जगे। माता च भवति दुहिता दुहिता मातृत्वं पुनरुपैति ।