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द्वादशानुप्रेक्षाधिकार ८। २६९ श्रद्धान करता भी सदा अशुभगतिका कारण तीव्र पापको करता है इसलिये उन रागद्वेषोंको धिक्कार हो ॥ ७३१ ॥ अणिहुदमणसा एदे इंदियविसया णिगेण्हिदुं दुक्खं । मंतोसहिहीणेण व दुट्ठा आसीविसा सप्पा ॥ ७३२॥
अनिभृतमनसा एतान् इन्द्रियविषयान् निगृहीतुं दुःखं । मंत्रौषधहीनेन इव दुष्टा आशीविषाः सपाः॥ ७३२॥
अर्थ-एकाग्रमनके विना इन रूप रस आदि इन्द्रियविषयोंके रोकनेको समर्थ नहीं होसकते । जैसे मंत्र औषधिकर हीन पुरुष दुष्ट आशीविष साँको वश नहीं कर सकता ॥ ७३२ ॥ धित्तेसिमिंदियाणं जेसिं वसदो दु पावमजणिय । पावदि पावविवागं दुक्खमणंतं चउग्गदिसु ॥ ७३३ ॥ धिक तानि इन्द्रियाणि येषां वशतस्तु पापमर्जयित्वा । प्राप्नोति पापविपाकं दुःखमनंतं चतुर्गतिषु ॥ ७३३ ॥
अर्थ-उन इन्द्रियोंको धिक्कार हो जिन इन्द्रियोंके वश हुआ यह जीव पापका उपार्जन करके उस पापका फल जो चारों गतियोंमें अनंत दुःख उसे पाता है ॥ ७३३ ॥ सण्णाहिं गारवेहिं अ गुरुओ गुरुगं तु पावमजणिय । तो कम्मभारगुरुओ गुरुगं दुक्खं समणुभवदि ॥७३४
संज्ञाभिः गौरवैश्व गुरुर्गुरुकं तु पापमर्जयित्वा । ततः कर्मभारगुरुः गुरुकं दुःखं समनुभवति ॥ ७३४ ॥
अर्थ-आहारादि संज्ञा और तीन गौरवोंकर अति भारा हुआ यह जीव महा पापको उपार्जन करके पश्चात् कर्मरूपी भारसे भारा हुआ यह महान् दुःखको भोगता है ॥ ७३४ ॥