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मूलाचार
आदि गौरव क्रोधादि कषाय मन वचन कायकी क्रिया सहित ये सब आस्रव हैं इनसे कर्म आते हैं ॥ ७२८ ॥ रंजेदि असुहकुणपे रागो दोसोवि दूसदी णिच्छं । मोहोवि महारिवु जं णियदं मोहेदि सम्भावं ॥७२९॥ रंजयति अशुभकुणपे रागो द्वेषोपि द्वेष्टि नित्यं । मोहोपि महारिपुः यन्नियतं मोहयति सद्भावं ॥ ७२९ ॥ अर्थ-राग इस जीवको अशुभ मलिन घिनावनी वस्तुमें अनुराग (प्रीति) उपजाता है, द्वेष भी सम्यग्दर्शनादिकोंमें द्वेष ( अप्रीति) उपजाता है और मोह भी महान् वैरी है जो कि हमेशा इस जीवके असली खरूपको भुलादेता है विनाश करता है ॥ ७२९ ॥ घिद्धी मोहस्स सदा जेण हिदत्थेण मोहिदो संतो। णवि बुज्झदि जिणवयणं हिदसिवसुहकारणं मग्गं । धिक् धिक् मोहं सदा येन हृदयस्थेन मोहितः सन् । नापि बुध्यते जिनवचनं हितशिवसुखकारणं मार्गम् ॥७३०
अर्थ-मोहको सदाकाल धिक्कार हो धिक्कार हो क्योंकि हृदयमें रहनेवाले जिसमोहसे मोहित हुआ यह जीव हितकारी मोक्षसुखका कारण ऐसे जिनवचनको नहीं पहचानता ॥ ७३० ॥ जिणवयण सद्दहाणोवि तिव्वमसुहगदिपावयं कुणइ। अभिभूदो जेहिं सदा धित्तेसिं रागदोसाणं ॥७३१॥ जिनवचनं श्रद्दधानोपि तीव्रमशुभगतिपापं करोति ।
अभिभूतो याभ्यां सदा धिक् तौ रागद्वेषौ ॥ ७३१ ॥ .. अर्थ-यह जीव जिन रागद्वेषोंकर पीड़ित हुआ जिनवचनका