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द्वादशानुप्रेक्षाधिकार ८ ।
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ऐसा जानकर वैराग्यको प्राप्त हुआ तू वैराग्यका इसतरह ध्यानकर जिस तरह अशुचि ( अपवित्र ) इस शरीर को छोड़ दे ७२५ मोत्तूण जिणक्खादं धम्मं सुहमिह दु णत्थि लोगम्मि । ससुरासुरे तिरिए णिरयमणुएस चिंतेज्जो ॥७२६
मुक्त्वा जिनाख्यातं धर्म शुभमिह तु नास्ति लोके । ससुरासुरेषु तिर्यक्षु नरकमनुजेषु चिंतयेत् ॥ ७२६ ॥
अर्थ – सुर असुरों सहित तिर्यच नरक मनुष्य इन गतियोंमें जिनभगवानकर उपदेशित धर्मको छोड़कर लोकमें अन्य कोई भी कल्याणकारी नहीं है । इस जगत में आत्माका हितकारी जिनधर्म ही है ऐसा चिंतन करे ॥ ७२६ ॥
अब आस्रवानुप्रेक्षाको कहते हैं;दुक्खभयमीणपउरे संसार महण्णवे परमघोरे । जंतू जं तु णिमज्जदि कम्मासवहेदुयं सव्वं ॥ ७२७ ।। दुःखभयमीनप्रचुरे संसारमहार्णवे परमघोरे ।
जंतुः यत्तु निमज्जति कर्मास्रवहेतुकं सर्वं ।। ७२७ ॥
अर्थ – दुःख भयरूपी मत्स्य जिसमें बहुत हैं ऐसे अत्यंत भयंकर संसार समुद्रमें यह प्राणी जिसकारणसे डूबता है वही सब कर्मावका कारण है ॥ ७२७ ॥
रागो दोसो मोहो इंदियसण्णा य गारवकसाया । मणवयणकायसहिदा दु आसवा होंति कम्मस्स ॥ रागः द्वेषः मोहः इन्द्रियसंज्ञाश्च गौरवकषायाः । मनोवचनकायसहितास्तु आस्रवा भवंति कर्मणः ॥ ७२८ || अर्थ - राग द्वेष मोह पांच इन्द्रिय आहारादि संज्ञा ऋद्धि