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द्वादशानुप्रेक्षाधिकार ८। २५५ जो उवजूंजदि णिच्चं सो सिद्धिं जादि विसुद्धप्पा॥६९०
आवश्यकनियुक्तिः एवं कथिता समासतो विधिना । यः उपर्युक्ते नित्यं सः सिद्धिं याति विशुद्धात्मा ॥६९०॥
अर्थ-इसप्रकार मैंने आवश्यकनियुक्ति विधिकर संक्षेपसे कही जो इसको सबकाल आचरण करता है वह पुरुष कर्मोंसे रहित शुद्ध आत्मा हुआ मोक्षको प्राप्त होता है ॥ ६९० ॥ इसप्रकार आचार्यश्रीवट्टकेरिविरचित मूलाचारकी हिंदीभाषाटीकामें छह आवश्यकोंको कहनेवाला
सातवां षडावश्यकाधिकार
समाप्त हुआ ॥ ७ ॥
द्वादशानुप्रेक्षाधिकार ॥ ८॥
आगे मंगलाचरणपूर्वक अनुप्रेक्षा कहनेकी प्रतिज्ञा करते हैं;सिद्धे णमंसिदूणय झाणुत्तमखवियदीहसंसारे। दह दह दोदो य जिणे दहदो अणुपेहणा वुच्छं॥६९१॥ सिद्धान् नमस्कृत्य ध्यानोत्तमक्षपितदीर्घसंसारान् । दश दश द्वौ द्वौ च जिनान् दशद्वे अनुप्रेक्षा वक्ष्ये॥६९१॥
अर्थ-उत्तम ध्यानसे क्षय किया है दीर्घ संसार जिन्होंने ऐसे सिद्धोंको नमस्कारकर तथा चौवीस तीर्थकर जिनेंद्र देवोंको नमस्कारकर मैं बारह अनुप्रेक्षाओंको कहता हूं ॥ ६९१ ॥ अडुवमसरणमेगत्तमण्णसंसारलोगमसुचित्तं । आसवसंवरणिज्जरधम्मं बोधिं च चिंतेजो ॥ ६९२ ॥