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मूलाचारयो भवति निसितात्मा निषधका तस्य भावतो भवति । अनिसितस्य निषद्यकाशब्दो भवति केवलं तस्य ॥ ६८७॥
अर्थ-जो निसितात्मा है अर्थात् जिसने इंद्रिय कषाय चित्तादिपरिणामोंको रोकलिया है और जिसकी बुद्धि सर्वथा निश्चित है उसके भावसे निषद्यका होती है। और जो स्वेच्छा प्रवर्तता चलायमान चित्त कषायोंके वश है उसके निषद्यका केवल शब्दमात्र जानना ॥ ६८७ ॥ आसाए विप्पमुक्कस्स आसिया होदि भावदो। आसाए अविप्पमुक्कस्स सद्दो हवादि केवलं ॥ ६८८॥
आशया विप्रमुक्तस्य आसिका भवति भावतः । आशया अविमुक्तस्य शब्दो भवति केवलं ॥ ६८८ ॥
अर्थ-जो आकांक्षाओंसे रहित है उसके आसिका परमार्थसे जानना । और जो आशाकर सहित है उस पुरुषके आसिका करना केवल नाममात्र है ॥ ६८८ ॥ णिजत्ती णिज्जुत्ती एसा कहिदा मए समासेण । अह वित्थारपसंगोऽणियोगदो होदि णादव्वो॥६८९॥ नियुक्तनियुक्तिः एषा कथिता मया समासेन । अथ विस्तारप्रसंगो अनियोगात् भवति ज्ञातव्यः ॥६८९॥
अर्थ-आवश्यकनियुक्ति अधिकारमें सबकी नियुक्ति संक्षेपसे मैंने कही। जो इसका विस्तार जानना हो तो आचारांगसे जानलेना ॥ ६८९ ॥
अब इस आवश्यकाधिकारको संकोचते हैंआवासयणिज्जत्ती एवं कधिदा समासओ विहिणा ।