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मूलाचारअर्थ-उत्थितोत्थित, उत्थितनिविष्ट, उपविष्टोत्थित, उपविष्टनिविष्ट-इसतरह कायोत्सर्गके चार भेद हैं ॥ ६७३ ॥ धम्मं सुकं च दुवे झायदि झाणाणि जो ठिदो संतो। एसो काओसग्गो इह उहिदउढिदो णाम ॥६७४॥
धर्म शुक्लं च द्वे ध्यायति ध्याने यः स्थितः सन् । एषः कायोत्सर्ग इह उत्थितोत्थितो नाम ॥ ६७४॥
अर्थ-जो कायोत्सर्गकर खड़ा हुआ धर्म और शुक्ल इन दो ध्यानोंको चितवन करता है वह उत्थितोत्थित है। शरीरसे व परिणामसे दोनोंसे खड़ा जानना ॥ ६७४ ॥ अहं रुदं च दुवे झायदि झाणाणि जो ठिदो संतो। एसो काओसग्गो उठ्ठिदणिविहिदो णाम ॥ ६७२ ॥
आर्त रौद्रं च द्वे ध्यायति ध्याने यः स्थितः सन् । एषः कायोत्सर्गः उत्थितनिविष्टो नाम ॥ ६७५ ॥
अर्थ-जो कायोत्सर्गसे खड़ा हुआ आर्त रौद्र इन दो ध्यानोंका चितवन करता है उसके उत्थितनिविष्ट कायोत्सर्ग होता है।६७५ धम्मं सुकं च दुवे झायदि झाणाणि जो णिसण्णो दु। एसो काओसग्गो उवविट्ठउढिदो णाम ॥ ६७६ ॥ धर्म शुक्लं च द्वे ध्यायति ध्याने यः निषण्णस्तु । एष कायोत्सर्गः उपविष्टोत्थितो नाम ॥ ६७६ ॥
अर्थ-जो बैठा हुआ धर्मध्यान शुक्लध्यान इन दो ध्यानोंका चितवन करता है यह कायोत्सर्ग उपविष्टोत्थित नामवाला है६७६ अहं रुदं च दुवे झायदि झाणाणि जो णिसण्णो दु । एसो काओसग्गो णिसण्णिदणिसण्णिदो णाम।।६७७