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षडावश्यकाधिकार ७।
२५१ आर्त रौद्रं च द्वे ध्यायति ध्याने यः निषण्णस्तु । एष कायोत्सर्गः निषण्णितनिषण्णितो नाम ॥ ६७७ ॥
अर्थ-जो पल्यंकासनसे बैठा हुआ आत रौद्र इन दो ध्यानोंका चिंतवन करता है वह उपविष्टोपविष्ट कायोत्सर्ग है ॥ ६७ ॥ दसणणाणचरित्ते उवओगे संजमे विउस्सग्गे। पचक्खाणे करणे पणिधाणे तह य समिदीसु॥६७८॥ विजाचरणमहव्वदसमाधिगुणबंभचेरछक्काए। खमणिग्गहअजवमद्दवमुत्तीविणए च सद्दहणे॥६७९॥ एवंगुणो महत्थो मणसंकप्पो पसत्थ वीसत्थो। संकप्पोत्ति वियाणह जिणसासणसम्मदं सव्व।६८०॥
दर्शनज्ञानचारित्रे उपयोगे संयमे व्युत्सर्गे। प्रत्याख्याने करणेषु प्रणिधाने तथा च समितिषु ॥६७८॥ विद्याचरणमहाव्रतसमाधिगुणब्रह्मचर्यषट्कायेषु । क्षमानिग्रहार्जवमार्दवमुक्ति विनयेषु च श्रद्धाने ॥ ६७९ ॥ एवंगुणो महार्थः मनःसंकल्पः प्रशस्तो विश्वस्तः । संकल्प इति विजानीहि जिनशासनसंमतं सर्व ॥ ६८० ॥
अर्थ-दर्शन ज्ञान चारित्रमें, उपयोगमें, संयममें, कायोत्सर्गमें, शुभ योगमें, धर्मध्यानमें, समितिमें, द्वादशांगमें, भिक्षाशुद्धिमें, महाव्रतोंमें, संन्यासमें, गुणमें, ब्रह्मचर्यमें, पृथिवी आदि जीवरक्षामें, क्षमामें, इंद्रिय निग्रहमें, आर्जवमें, मार्दवमें, सब परिग्रहत्यागमें, विनयमें, श्रद्धानमें इन सबमें जो मनका परिणाम है वह कर्म क्षयका कारण है शोभायमान है सबके विश्वास योग्य है । इस