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षडावश्यकाधिकार ७ ।
आगे प्रतिक्रमणनिर्युक्तिका खरूप कहते हैं; णामवणा दव्वे खेत्ते काले तधेव भावे य । एसो पडिकमणगे णिक्खेवो छव्विहो णेओ ॥ ६१२ ॥ नामस्थापना द्रव्यं क्षेत्रं कालस्तथैव भावश्च । एष प्रतिक्रमणके निक्षेपः षड्विधो ज्ञेयः ।। ६१२ ॥ अर्थ – नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल और भाव-ये छह प्रतिक्रमणके निक्षेप जानना || जैसे दोषोंके नामकी निवृत्ति करना नामप्रतिक्रमण है । इसीतरह अन्य भी समझ लेना ॥ ६१२ ॥ पडिकमणं देवसियं रादिय इरियापधं च बोधव्वं । पक्खिय चादुम्मा सिय संवच्छरमुत्तमहं च ॥ ६१३ ॥
प्रतिक्रमणं दैवसिकं रात्रिकं ऐर्यापथिकं च बोद्धव्यं । पाक्षिकं चातुर्मासिकं सांवत्सरमुत्तमार्थम् ॥ ६१३ ॥ अर्थ —अतीचारोंसे निवृत्ति होना वह प्रतिक्रमण है वह दिवस में हो तो दैवसिक कहलाता है, रात्रिमें किया गया रात्रिक है, ईर्यापथ गमन में हुआ ऐर्यापथिक है, तथा पाक्षिक चतुर्मासिक संवत्सरिक, जीवनपर्यंत किया गया उत्तमार्थ - ऐसे सातप्रकार है ॥ पडिकमओ पडिकमणं पडिकमिदव्वं च होदि णादव्वं । एदेसिं पत्तेयं परूवणा होदि तिहंपि ।। ६१४ ॥
प्रतिक्रामकः प्रतिक्रमणं प्रतिक्रमितव्यं च भवति ज्ञातव्यं । एतेषां प्रत्येकं प्ररूपणा भवति त्रयाणामपि ॥ ६१४ ॥ अर्थ - जिसने दोष दूर किया ऐसा प्रतिक्रामक, दोषों से निवृत्ति होनारूप प्रतिक्रमण और त्यागने योग्य दोषरूप प्रतिक्रमितव्य - ये तीन जानने योग्य हैं । इन तीनोंका जुदा २ स्वरूप कहते हैं ॥
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