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षडावश्यकाधिकार ७। २३५ यस्यार्थ प्रतिक्रमते तं पुनः अर्थ न साधयति ॥ ६२४ ॥
अर्थ-शुद्ध परिणामोंसे रहित हुआ दोषोंसे घृणा नहीं करता साधु जिस दोषके दूर करनेके लिये प्रतिक्रमण करता है उस प्रयोजनको फिर वह नहीं साधसकता ॥ ६२४ ॥ भावेण संपजुत्तो जदत्थजोगो य जंपदे सुत्तं । सो कम्मणिजराए विउलाए वदे साधू ॥ ६२५ ॥ भावेन संप्रयुक्तः यदर्थयोगश्च जल्पति सूत्रं । स कर्मनिर्जरायां विपुलायां वर्तते साधुः ॥ ६२५ ॥
अर्थ-भावकर संयुक्त साधु जिस निमित्त शुभ आचरण करता हुआ प्रतिक्रमणपदको उच्चारण करता है वह साधु बहुत कर्मोंकी निर्जरा करनेमें प्रवर्तता है ॥ ६२५ ॥ सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स अपराधे पडिकमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥२६॥ सप्रतिक्रमणो धर्मः पूर्वस्य च पश्चिमस्य च जिनस्य । अपराधे प्रतिक्रमणं मध्यमानां जिनवराणां ॥ ६२६॥
अर्थ-पहले ऋषभदेव तीर्थकरके समयमें तथा पिछले महावीर तीर्थकरके समयमें प्रतिक्रमण सहित धर्म प्रवर्तता है और बीचके अजितनाथ आदि तीर्थंकरोंके समयमें अपराध हो तो प्रतिक्रमण होता है क्योंकि बहुत अपराध नहीं होता ॥ ६२६ ॥ जावेदु अप्पणो वा अण्णदरे वा भवे अदीचारो। तावेदु पडिक्कमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥ ६२७ ॥
यसिन् आत्मनो वा अन्यतरस्य वा भवेदतीचारः । तसिन् प्रतिक्रमणं मध्यमानां जिनवराणां ॥ ६२७ ॥