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मूलाचारआलोचिते आराधना अनालोचने भाज्या ॥ ६२१॥
अर्थ-आलोचन आलंचन विकृतिकरण और भावशुद्धि ये एकार्थ हैं। गुरुके सामने निवेदन करनेसे सम्यग्दर्शनादिकी शुद्धि होती है और दोषोंके नहीं कहनेपर शुद्धि होती भी है अथवा नहीं भी होती ॥ ६२१ ॥ उप्पण्णो उप्पण्णा माया अणुपुव्वसो णिहंतव्वा । आलोचणणिंदणगरहणाहिंण पुणो तिअंबिदि॥६२२ उत्पन्न उत्पन्ना माया अनुपूर्वशो निहंतव्या । आलोचननिंदनगर्हणे न पुनः तृतीयं द्वितीयं ॥ ६२२ ॥ अर्थ-जैसे जैसे क्रमसे अतीचार लगे उसी क्रमसे कुटिलता छोड़ अतीचार शुद्ध करना चाहिये । और उन दोषोंको गुरुके सामने कहे अन्यके सामने प्रकट करे अथवा वयं निंदा करे परंतु उसीदिन करे दूसरे तीसरे दिन न करे ॥ ६२२ ॥ आलोचणाणंदणगरहणाहिं अब्भुट्टिओ अ करणाय । तं भावपडिक्कमणं सेसं पुण व्वदो भणिअं॥६२३॥
आलोचननिंदनगहणैः अभ्युत्थितश्च करणे । तत् भावप्रतिक्रमणं शेषं पुनः द्रव्यतो भणितं ॥ ६२३ ॥
अर्थ-आलोचन निंदन गर्हण इन तीनोंकर प्रतिक्रमणक्रियामें उद्यमी हुआ साधु वह भावप्रतिक्रमण है और इससे अन्य द्रव्यप्रतिक्रमण है ॥ ६२३ ॥ भावेण अणुवजुत्तो दव्वीभूदो पडिक्कमदि जो दु । जस्सर्ट पडिकमदे तं पुण अहँ ण साधेदि ॥ ६२४ ॥
भावेन अनुपयुक्तः द्रव्यीभूतः प्रतिक्रमते यस्तु ।