________________
२२७
षडावश्यकाधिकार ७ । निकट रहनेवाले ऐसे मुनीश्वरोंकी वंदना करे । मैं वंदना करता हूं ऐसा संबोधन कर, इसविधानसे बुद्धिमान् कृतिकर्म करे ॥५९८॥ आलोयणाय करणे पडिपुच्छा पूजणे य सज्झाए। अवराधे य गुरूणं वंदणमेदेसु ठाणेसु ॥ ५९९ ॥
आलोचनायाः करणे प्रतिपृच्छायां पूजने च स्वाध्याये । अपराधे च गुरूणां वंदनमेतेषु स्थानेषु ॥ ५९९ ॥
अर्थ-आलोचनाके समय प्रश्नके समय पूजाके समय खाध्यायके समय क्रोधादिक अपराधके समय-इतने स्थानोंमें आचार्य उपाध्याय आदिको वंदना करनी चाहिये ॥ ५९९ ।। चत्तारि पडिक्कमणे किदियम्मा तिणि होति सज्झाए। पुवण्हे अवरण्हे किदियम्मा चोदसा होंति ॥ ६००॥
चत्वारि प्रतिक्रमणे कृतिकर्माणि त्रीणि भवंति स्वाध्याये । पूर्वाह्ने अपराह्ने कृतिकर्माणि चतुर्दश भवंति ॥ ६०० ॥
अर्थ-प्रतिक्रमणकालमें चार क्रियाकर्म ( कायोत्सर्ग) होते हैं खाध्याय कालमें तीन क्रिया कर्म हैं इसतरह सात सवेरेके
और सात सांझके सब चौदह क्रियाकर्म होते हैं ॥ ६०० ॥ दोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव य । चदुस्सिरं तिसुद्धं च किदियम्मं पउंजदे ।। ६०१॥ द्वयवनतिस्तु यथाजातं द्वादशावर्तमेव च । चतुःशिरः त्रिशुद्धं च कृतिकर्म प्रयुंजते ॥६०१॥
अर्थ-ऐसे क्रियाकर्मको करे कि जिसमें दो अवनति (भूमिको छूकर नमस्कार ) हैं, बारह आवर्त हैं मन वचन कायकी शुद्धतासे