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षडावश्यकाधिकार ७।
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छेदोपस्थापनं पुनः भगवान् ऋषभश्च वीरश्च ॥ ५३३ ॥ अर्थ — अजितनाथको आदि ले पार्श्वनाथ पर्यंत बाईस तीर्थंकर सामायिक संयमका उपदेश करते हैं और भगवान् ऋषभदेव तथा महावीर खामी छेदोपस्थापना संयमका उपदेश करते हैं ॥ ५३३ ॥ आचक्खिदुं विभजितुं विण्णादुं चावि सुहृदरं होदि । एदेण कारणेण दु महव्वदा पंच पण्णत्ता ॥ ५३४ ॥
आख्यातुं विभक्तुं विज्ञातुं चापि सुखतरं भवति । एतेन कारणेन तु महाव्रतानि पंच प्रज्ञप्तानि ॥ ५३४ ॥ अर्थ — कहनेको विभाग करनेको जाननेको सामायिक सुगम होता है इसलिये पांच महाव्रतोंको कहा ।। ५३४ ॥ आदीए दुव्विसोधण णिहणे तह सुड्डु दुरणुपाले य । पुरिमा य पच्छिमा विहु कप्पाकप्पं ण जाणंति ॥ ५३५ ॥ आदौ दुर्विंशोधने निधने तथा सुष्ठु दुरनुपाले च । पूर्वाश्च पश्चिमा अपि हि कल्पाकल्पं न जानंति ॥ ५३५ ॥ अर्थ-आदितीर्थमें शिष्य सरलखभावी होनेसे दुःखकर शुद्ध किये जासकते हैं इसीतरह अंतके तीर्थ में शिष्य कुटिलखभावी होनेसे दुःखकर पालन करसकते हैं। जिसकारण पूर्वकाल के शिष्य पिछले कालके शिष्य प्रगटरीतिसे योग्य अयोग्य नहीं जानते इसी - कारण आदि अंत तीर्थमें छेदोपस्थापनाका उपदेश है ॥ ५३५ ॥ पडिलिहिय अंजलिकरो उवजुत्तो उट्ठण एयमणो । अव्वाखितो वृत्तो करेदि सामाइयं भिक्खू ॥ ५३६ ॥
प्रतिलेखितांजलिकरः उपयुक्तः उत्थाय एकमनाः । अव्याक्षिप्तः उक्तः करोति सामायिकं भिक्षुः || ५३६ ॥