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मूलाचार
कर्म क्षयको प्राप्त होते हैं और आचार्योंकी भक्तिके प्रसादसे विद्या और मंत्र सिद्ध होजाते हैं ॥ ५६९ ॥ अरहतेसु य राओ ववगदरागेसु दोसरहिएसु। धम्ममि य जो राओ सुदे य जो बारसविधमि।।५७० आयरियेसु य राओ समणेसु य बहुसुदे चरित्तड्डे । एसो पसत्थराओ हवदि सरागेसु सव्वेसु ॥ ५७१ ॥
अर्हत्सु च रागः व्यपगतरागेषु दोषरहितेषु । धर्मे च यः रागः श्रुते च यो द्वादश विधे ॥ ५७० ॥ आचार्येषु च रागः श्रमणेषु च बहुश्रुते चरित्रात्ये। एष प्रशस्तरागो भवति सरागेषु सर्वेषु ॥ ५७१ ॥
अर्थ-रागरहित अठारह दोषरहित ऐसे अरहंतोंमें राग ( भक्ति ), धर्ममें प्रीति, द्वादशांग श्रुतमें राग, आचार्योंमें राग, मुनियोंमें राग, उपाध्यायमें राग, उत्कृष्ट चारित्रधारीमें राग होना ये सब शुभ राग हैं ॥ ५७०।५७१ ॥ तेर्सि अहिमुहदाए अत्था सिझंति तह य भत्तीए। तो भत्ति रागपुव्वं वुच्चइ एदं ण हु णिदाणं ॥५७२॥ तेषां अभिमुखतया अर्थाः सिद्धयंति तथा च भक्त्या ।
तस्मात् भक्तिः रागपूर्वमुच्यते एतन्न खलु निदानं ॥५७२॥ ' अर्थ-उन जिनवरोंके सन्मुख होनेसे तथा उनकी भक्तिसे वांछित कार्य सिद्ध होते हैं इसलिये यह भक्ति रागपूर्वक है निदान नहीं है क्योंकि संसारके कारणको निदान कहते हैं यहां संसारके कारणका अभाव है ॥ ५७२ ॥ चाउरंगुलंतरपादो पडिलेहिय अंजलीकयपसत्थो।