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षडावश्यकाधिकार ७ ।
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जस्स सण्णा य लेस्सा य वियडिं ण जर्णेति दु ॥ ५२७ येन क्रोध मानश्च माया लोभश्च निर्जिताः ।
यस्य संज्ञाथ लेश्याश्च विकृतिं न जनयंति तु ॥ ५२७ ॥ अर्थ — जिसने क्रोध मान माया लोभरूप कषायों को जीत लिया है और जिसके आहार आदि संज्ञा तथा कृष्ण आदि लेश्या विकारको नहीं उपजातीं उसीके सामायिक ठहरता है ॥ ५२७ ॥ जो रसेंदिय फासे य कामे वज्जदि णिच्चसा । जो रूवगंधसद्दे य भोगे वज्जदि णिच्चसा ॥ ५२८ ॥ यः रसेंद्रिये स्पर्शने च कामं वर्जयति नित्यशः । यः रूपगंधशब्दांश्च भोगं वर्जयति नित्यशः ॥ ५२८ ॥ अर्थ — जो रसना इंद्रिय स्पर्शन इंद्रिय इन कामेंद्रियोंके रस स्पर्श विषयको सदा छोड़ता है और जो चक्षु प्राण श्रोत्ररूप भोगेंद्रिय के रूप गंध शब्दरूप विषयको सदा छोड़ता है उसके ही सामायिक होता है ॥ ५२८ ॥
जो दु अहं रुदं च झाणं वज्जेदि णिच्चसा ।
जो दु धम्मं च सुक्कं च झाणं झायदि णिच्चसा ॥ ५२९ ॥ यस्तु आर्त च रौद्रं च ध्यानं वर्जयति नित्यशः ।
यस्तु धर्म च शुक्लं च ध्यानं ध्यायति नित्यशः ।। ५२९ ॥ अर्थ - जो आर्तध्यान रौद्रध्यान इन दो ध्यानोंको हमेशा छोड देता है और जो धर्मध्यान शुक्लध्यान इन दोनों को हर समय ध्याता है उसीके सामायिक होसकता है ॥ ५२९ ॥ सावज्जजोगपरिवज्जणङ्कं सामाइयं केवलिहिं पसत्थं । गिहत्थधम्मोऽपरमत्ति णच्चा कुज्जा बुधोअप्पहियंपसत्थं