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षडावश्यकाधिकार ७।
२०३ जं च समो अप्पाणं परे य मादय सव्वमहिलासु। अप्पियपियमाणादिसुतोसमणो तो य सामइयं॥५२१ यसाच्च सम आत्मनि परे च मातरि सर्वमहिलासु । अप्रियप्रियमानादिषु तस्मात् श्रमणस्ततश्च सामायिकं॥५२१॥ अर्थ-जिसलिये अपनेमें और परमें रागद्वेषरहित हैं, माता और सब स्त्रियोंमें शुद्ध भावकर सम हैं अर्थात् सब स्त्रियोंको माताके समान देखते हैं तथा शत्रुमित्र मान अपमान आदिमें सम हैं इसलिये वे श्रमण कहे जाते हैं इसकारण उन्हींको सामायिक जानना ॥ ५२१ ॥ जो जाणइ समवायं व्वाण गुणाण पजयाणं च । सम्भावं तं सिद्धं सामाइयमुत्तमं जाणे ॥ ५२२॥
यः जानाति समवायं द्रव्याणां गुणानां पर्यायाणां च । सद्भावं तं सिद्धं सामायिकमुत्तमं जानीहि ॥ ५२२ ॥
अर्थ-जो द्रव्योंके गुणोंके पर्यायोंके सादृश्यको अथवा एक जगह खतःसिद्ध रहनेको जानता है वह उत्तम सामायिक है ऐसा जानना । गुणगुणीकी तादात्म संबंधसे एकता है समवायसे नहीं । रागदोसो णिरोहित्ता समदा सव्वकम्मसु । सुत्तेसु अ परिणामो सामाइयमुत्तमं जाणे ॥ ५२३ ॥
रागद्वेषौ निरुध्य समता सर्वकर्मसु । सूत्रेषु च परिणामः सामायिकमुत्तमं जानीहि ॥ ५२३ ॥
अर्थ-सब कामोंमें राग द्वेषोंको छोड़कर समभाव होना और द्वादशांग सूत्रोंमें श्रद्धान होना उसे तुम उत्तम सामायिक जानो ॥ ५२३ ॥ यहां सम्यक्त्वचारित्रकी अपेक्षा है।