________________
२०४
मूलाचार
विरदो सव्वसावज्जं तिगुत्तो पिहिदिदिओ । जीवो सामाइयं णाम संजमट्ठाणमुत्तमं ॥ ५२४ ॥ विरतः सर्वसावद्यं त्रिगुप्तः पिहितेंद्रियः ।
जीवः सामायिकं नाम संयमस्थानमुत्तमं ।। ५२४ ।। अर्थ – जो सब पापोंसे विरत ( रहित ) है, तीन गुप्ति सहित है, इसलिये जिसने पांच इंद्रियोंके विषयव्यापारको रोक दिया है ऐसा जीव वह सामायिक है उसीको उत्तम संयमका स्थान जानना ।। ५२४ ॥
जस्स सणिहिदो अप्पा संजमे नियमे तवे । तस्स सामायियं ठादि इदि केवलिसासणे ॥ ५२५ ॥ यस्य संनिहितः आत्मा संयमे नियमे तपसि । तस्य सामायिकं तिष्ठति इति केवलिशासने ॥ ५२५ ॥
अर्थ - जिसका आत्मा संयम में नियममें तपमें लीन है उसीके सामायिक तिष्ठता है ऐसा केवली भगवानके आगममें कहा है ॥ ५२५ ॥
जो समोसव्वभूदेसु तसेसु धावरेसु य । जस्स रागो य दोसो य वियडिं ण जर्णेति दु ।। ५२६ ॥ यः समः सर्वभूतेषु त्रसेषु स्थावरेषु च ।
यस्य रागश्च दोषश्च विकृतिं न जनयतस्तु ।। ५२६ ॥ अर्थ - जो त्रस स्थावर ऐसे सब प्राणियोंमें बाधारहित सम परिणाम करता है और जिसके राग द्वेष ये दोनों विकारको नहीं उत्पन्न करते उसीके सामायिक ठहरता है ।। ५२६ ॥ जेण कोधो य माणो य माया लोभो य णिज्जिदा ।