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मूलाचारगुच्छः गुल्मं वल्ली तृणानि तथा पर्व कायश्च ॥ २१४ ॥ . अर्थ-सूरण आदि कंद, अदरख आदि मूल, छालि, स्कंध, पत्ता, कौंपल, पुष्प, फल, गुच्छा, करंजा आदि गुल्म, वेल, तिनका और वेत आदि ये संमूर्छन प्रत्येक अथवा अनंतकायिक हैं ॥ २१४ ॥ सेवाल पणय केणग कवगो कुहणो य बादरा काया। सव्वेवि सुहमकाया सव्वत्थ जलत्थलागासे ॥२१५॥
शैवालं पनकं कृष्णकं कवकः कुहनश्च बादराः कायाः। सर्वेपि सूक्ष्मकायाः सर्वत्र जलस्थलाकाशे ॥ २१५ ॥
अर्थ-जलकी काई, ईंट आदिकी काई, कूड़ेसे उत्पन्न हरानीलारूप, जटाकार, आहार कांजी आदिसे उत्पन्न काई-ये सब बादरकाय जानने । जल स्थल आकाश सब जगह सूक्ष्मकाय भरे हुऐ जानना ॥ २१५ ॥ ... आगे साधारण जीवोंका खरूप कहते हैंगूढसिरसंधिपव्वं समभंगमहीरुहं च छिण्णरुहं । साहारणं सरीरं तव्विवरीयं च पत्तेयं ॥२१६ ॥
गूढसिरासंधिपर्व समभंगमहीरहं च छिन्नरुहं । साधारणं शरीरं तद्विपरीतं च प्रत्येकं ॥ २१६ ॥
अर्थ-जिनकी नसें नहीं दीखतीं, बंधन व गांठि नहीं दीखतीं जिनके टुकटे समान होजाते हैं वलि रहित ( सीधे )
और भिन्न किया गया भी ऊगे ऐसे सब साधारण शरीर कहे जाते हैं। इनसे जो विपरीत होवे प्रत्येक शरीर कजाते हैं ॥ २१६ ॥