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मूलाचार
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अर्थ - पंक्तिबंध सीधे तीन अथवा सात घरोंसे आया भात आदि अन्न आचिन्न अर्थात् ग्रहणकरने योग्य है । और इससे उलटे सीधे घर न हों ऐसे सातघरोंसे लाया हुआ भी अन्न अथवा आठवां आदि घरसे आया हुआ ओदनादि भोजन अनाचिन्न अर्थात् ग्रहण करने योग्य नहीं है ॥ ४३९ ॥ सव्वाभिघडं चदुधा सयपरगामे सदेसपरदेसे । पुव्वपरपाडणघडं पढमं सेसंपि णादव्वं ॥ ४४० ॥ सर्वाभिघटं चतुर्धा खपरग्रामे स्वदेशपरदेशे । पूर्वपरपाटनयनं प्रथमं शेषमपि ज्ञातव्यं ।। ४४० । अर्थ – सर्वाभिघटदोषके चार भेद हैं- स्वग्राम परग्राम स्वदेश परदेश । पूर्वदिशा के मौहल्लेसे पश्चिम दिशा के मौहल्ले में भोजन लेजाना वह स्वग्रामाभिघटदोष हैं । इसीतरह शेष तीन भी भेद जान लेना । इसमें ईर्यापथका दोष लगता है ॥ ४४० ॥ पिहिदं लंछिदयं वा ओसहधिदसक्करादि जं दव्वं । उन्भिणिऊण देयं उम्भिण्णं होदि णादव्वं ॥ ४४९ ॥ पिहितं लांछितं वा औषधघृतशर्करादि यत् द्रव्यं । उद्भिद्य देयं उद्भिन्नं भवति ज्ञातव्यम् ॥ ४४१ ॥ अर्थ —मट्टी लाख आदिसे ढका हुआ अथवा नामकी मौहरकर चिह्नित जो औषध घी शक्कर आदि द्रव्य है उसे उघाड़कर देना वह उद्भिन्नदोष है ऐसा जानना । इसमें चींटी आदिका प्रवेश होनेसे दोष है ॥ ४४१ ॥ आगे मालारोहणदोषको कहते हैं:
णिस्सेणीकट्ठादिहि णिहिदं पूवादियं तु धित्तूर्णं ।