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मूलाचार
इसमय अपराह्नसमय इनको पलटनेसे कालका बढाना व घटाना - रूप है ॥ ४३३ ॥
पादुकारो दुविहो संकमण पयासणा य बोधव्वो । भायण भोयणदीणं मंडवविरलादियं कमसो ॥ ४३४ ॥ प्रादुष्कारो द्विविधः संक्रमणं प्रकाशनं च बोद्धव्यं । भाजन भोजनादीनां मंडपविरलनादिकं क्रमशः ॥ ४३४ ॥ अर्थ — प्रादुष्कारदोषके दो भेद हैं संक्रमण प्रकाशन । साधुको घर आनेपर भोजन भाजन आदिको एक स्थान से दूसरे स्थानमें लेजाना वह संक्रमण है तथा भाजनको मांजना दीपकका प्रकाश करना अथवा मंडपका उद्योतनकरना आदि प्रकाशनदोष है ॥ ४३४ ॥
कीदयडं पुण दुविहं दव्वं भावं च सगपरं दुविहं । सच्चित्तादी दव्वं विज्जामंतादि भावं च ॥ ४३५ ॥ क्रीततरं पुनः द्विविधं द्रव्यं भावश्व स्वपरं द्विविधं । सचित्तादि द्रव्यं विद्यामंत्रादि भावश्च ।। ४३५ ॥
अर्थ - क्रीततर दोषके दो भेद हैं द्रव्य और भाव । हरएकके दो भेद हैं ख और पर । संयमीको भिक्षाकेलिये प्रवेश करनेपर गाय आदि देकर बदलेमें भोजन लेकर साधुको देना वह द्रव्यक्रीत है । प्रज्ञप्ति आदि विद्या चेटकादिमंत्रोंके बदले में आहार लेके साधुको देना वह भावक्रीतदोष है || ४३५ ॥ लहरिय रिणं तु भणियं पामिच्छे ओदणादि अण्णदरं । तं पुण दुविहं भणिदं सवड्डियमवड्डियं चावि ॥ ४३६ ॥ लघु ऋणं तु भणितं प्रामृष्यं ओदनादि अन्यतरं ।