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मूलाचार
आगे फलके इच्छुक सूत्रकार प्रार्थना करते हैं; - जेणेह पिंडसुद्धी उवदिट्ठा जेहिं धारिदा सम्मं । ते वीरसाधुवग्गा तिरदणसुद्धिं मम दिसंतु ॥ ५०१ ॥ यैरिह पिंडशुद्धिः उपदिष्टा यैः धारिता सम्यक् । ते वीरसाधुवर्गाः त्रिरत्नशुद्धिं मम दिशंतु ॥ ५०१ ॥ अर्थ - जिन्होंने यह पिंडशुद्धि उपदेशी है और जिन्होंने यह अच्छी तरह धारण की है वे शूरवीर साधूसमूह मुझे तीन रत्नोंकी शुद्धि दें अर्थात् उनके प्रसादसे मेरे भी दर्शन ज्ञान चारित्रकी निर्मलता हो ॥ ५०१ ॥
इसप्रकार आचार्यश्रीबट्टकेरिविरचित मूलाचारकी हिंदी भाषाटीका में आहारशुद्धिको कहनेवाला छठा पिंडशुद्धि-अधिकार समाप्त हुआ ॥ ६ ॥
डावश्यकाधिकार ॥ ७ ॥
आगे षडावश्यक कहनेके प्रथम ही मंगलाचरण करते हैं;काऊण णमोक्कारं अरहंताणं तहेव सिद्धाणं । आइरियुवज्झायाणं लोगम्मि सव्वसाहूणं ॥ ५०२ ॥ कृत्वा नमस्कारं अर्हतां तथैव सिद्धानां । आचार्योपाध्यायानां लोके सर्वसाधूनाम् ॥ ५०२ ॥ अर्थ - लोकमें जो अरहंत हैं सिद्ध हैं आचार्य हैं उपाध्याय
हैं और सब साधु हैं उन सबको नमस्कार करके ॥ ५०२ ॥